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मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...243
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा मुँह, गला, कण्ठ, कान आदि की व्याधियों एवं थायरॉइड, मधुमेह, अल्सर, बुखार, मांसपेशियों आदि कई समस्याओं के निवारण में सहायक बनती है।
• अग्नि एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा आन्तरिक ऊर्जा का अनुभव करवाती है एवं भावनाओं को व्यक्त करने में सहायक बनती है। पाचन एवं रक्त संचरण के कार्यों को नियंत्रित करती है। इससे भावों में निर्मलता आती है एवं आंतरिक आनंद की अनुभूति होती है।
• थायरॉइड-पेराथायरॉइड, एड्रीनल एवं पैन्क्रियाज के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा आवाज नियंत्रण, स्वभाव नियंत्रण, शरीरस्थ कैल्शियम, आयोडिन, कोलेस्ट्राल आदि के नियंत्रण एवं थकावट दूर करने में सहायक बनती है। 6. ऎकार मुद्रा
'ऐं' मन्त्र वाक् शक्ति का प्रतीक है। वाणी की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है। सम्यकज्ञान की प्राप्ति के लिए सरस्वती की साधना प्रत्येक धर्मावलम्बी हेतु परमावश्यक मानी गई है। इस शक्ति उपासना की परम्परा सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही रही है। युग के आदिकाल में यह ब्राह्मी के नाम से प्रख्यात थी। भगवान आदिनाथ को सृष्टि के आद्य कर्ता ब्रह्मा माना जाता है। ब्राह्मी उनकी पुत्री थी, उसे ब्राह्मी लिपि सिखाई थी। ब्राह्मी लिपि ही 'वाणी की देवता' के रूप में प्रस्थापित हुई।
जैन एवं इतर समस्त परम्पराओं में विद्यादायिनी सरस्वती साधना का अचिन्त्य महत्त्व है। सरस्वती को तीर्थंकरों के मुख में निवास करने वाली कहा गया है।
वैदिक परम्परा में प्राचीन काल से तीन महानदियों का उल्लेख मिलता है— गंगा, सिन्धु और सरस्वती। लोक मान्यता अनुसार सरस्वती को गुप्त नदी मानते हैं। एक मान्यता ऐसी है कि जहाँ दो नदी का संगम हो वहाँ सरस्वती का प्रवाह स्वयं आ जाता है और उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। जहाँ ऐसे त्रिवेणी संगम बनते हैं वहाँ कोई अलौकिक विद्युत चुम्बकीय वृत्त (Magnetic field) होता है जिसमें विशिष्ट शक्ति प्रवाह का अवतरण होता है, उसे योगी पुरुष 'सारस्वत महः' कहते हैं। यह 'सारस्वत महः' आकाश मंडल में प्रवहण करता