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236... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा सुपरिणाम
• ॐकार मुद्रा को धारण करने से अनाहत एवं ब्रह्म केन्द्र जागृत एवं सक्रिय होते हैं। यह मुद्रा साधक में प्रेम, भक्ति और परोपकार के भाव जागृत करती है। चित्रकला, नृत्य, संगीत आदि कलात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों में रुचि उत्पन्न करती है। इससे आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि बढ़ती है।
• यह मुद्रा मस्तिष्क समस्या, पार्किन्सन्स रोग, एलर्जी, दमा, छाती में दर्द, सुस्ती आदि के निराकरण में सहायक बनती है।
• वायु एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा श्वसन एवं रक्त संचरण प्रणाली आदि के कार्यों को नियमित करती है। हृदय, फेफड़ें, नाक, कान, गला, मुँह, स्वर तंत्र आदि की समस्याओं का निवारण करती है। प्राण धारण एवं उसके नियोजन में भी यह विशेष सहायक है। __ • थायमस एवं पीयूष ग्रंथि के स्राव को प्रभावित कर यह मुद्रा शारीरिक स्फूर्ति, हृदय की धड़कन, शरीर के तापक्रम, रक्त शर्करा, स्वभाव आदि को नियन्त्रित रखती है। 2. ह्रीं कार मुद्रा
ही बीज मन्त्र है। ह्रीं शब्द में ह + र + ई + + 0 व्याप्त है। इस मन्त्र में परिव्याप्त 'ह' शिव वाचक, रेफ प्रकृति वाचक, 'ई' महामाया वाचक, चन्द्रकला एवं बिन्दू नाद आदि का सूचक है। इस तरह ह्रीं शब्द बीज, शिव और शक्ति की अपार लीला को सूचित करता है। त्रिपुरोपनिषद् के अनुसार ह्रीं का नियुक्ति अर्थ है
ह - हृदय रूप आगार में, ई- निवास करने वाली शक्तियों का बोध कराने वाला ह्रीं कार कहलाता है।
जैन मंत्र विशारदों के मतानुसार 'सर्वधर्म बीजमिदम्' ह्रीं कार बीज सकल धर्मों को मान्य है। इसलिए इस मन्त्र में ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवत्व शक्तियों का समावेश है। तात्पर्य है कि ह्रीं कार मन्त्र का स्मरण जो जिस स्वरूप में करता है उसे तदरूप में उस शक्ति का दर्शन हो जाता है और वह साधक के सर्वमनोरथ को पूर्ण करता है। मंत्राभिधान, बीजाभिधान, प्रणव विद्यास्तवन, मन्त्र व्याकरण आदि ग्रन्थों में ह्रीं कार के अनेक नाम उल्लिखित हैं जो इस मन्त्र की मूल्यवत्ता का साक्षात बोध कराते हैं। जैसे एकाक्षर, आदिरूप, मायाक्षर,