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184... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विधि
"उभयोः करयोरनामिका मध्यमे परस्परानभिमुखे ऊर्वीकृत्य मीलयेच्छेषांगुलीः पातयेदिति पर्वत मुद्रा।"
दोनों हाथों की अनामिका एवं मध्यमा अंगुलियाँ, जो परस्पर एक-दूसरे से विमुख हैं, उन्हें ऊपर की ओर करके मिलाने पर तथा शेष अंगुलियों को नीचे गिराने पर पर्वत मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा बुद्धि को प्रखर एवं नेत्र ज्योति को तेज करती है।
इससे अग्नि और आकाश तत्त्व नियंत्रित रहते हैं तथा तत्सम्बन्धी दोषों का निवारण होता है।
शरीर का पृष्ठ भाग मजबूत एवं सक्रिय बनता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा साधक में स्थिरता एवं दृढ़ता गुण को अभिवृद्ध करती है।
आवेगों को शान्त करने की शक्ति प्रदान करती है।
इससे विशुद्धि चक्र प्रभावित होता है फलत: साधक का मन निरभ्र आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है।
साधक की मन:स्थिति सम-विषम परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती। विशेष
• एक्यूप्रेशर चिकित्सकों के अनुसार यह मुद्रा पीयूष ग्रन्थि के स्रावों का नियन्त्रण करती है।
• वात दोष अथवा कफ दोष के कारण एकाएक गंभीर सदमा लगने से शारीरिक स्थिति बिगड़ जाये तो इस मुद्रा के दाब बिन्दुओं से ऊर्जा प्रवाह पुनः सामान्य हो जाता है।
• यह क्रोध, भय एवं मानसिक तनाव को घटाती है।
• यदि अचानक सुनने की शक्ति, देखने की शक्ति, सूंघने की शक्ति घट जाये, नाक से खून बहना, गले में रुकावट, सांस घुटना, आँखों में दर्द, गर्दन का कड़ापन आदि रोग ठीक हो जाते हैं।