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________________ 182... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा यह सम्पूर्ण शरीर का मूल स्थान है। इसी स्थान से ऊपर की यात्रा प्रारम्भ होती है। आत्म शक्तियों के उत्पादन एवं ऊर्ध्वारोहण हेतु इस चक्र को जागृत करना अत्यावश्यक है। मूलाधार चक्र के जागृत होने पर मनुष्य मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ रहता हुआ ऊर्ध्वा रेतस् बनता है, अपनी शक्ति को भिन्न-भिन्न चक्रों में लय करता हुआ शिव सुख प्राप्त कर लेता है। ___ पाँच तत्त्वों की दृष्टि से मूलाधार चक्र में पृथ्वी तत्त्व है। इस तत्त्व में पुद्गल के पाँचों सामान्य गुण शब्द, रूप, स्पर्श, रस, गन्ध विद्यमान हैं। एक अपेक्षा से पृथ्वी में शेष चार तत्त्व भी समाहित हैं। मूलाधार जागृत होने से समग्र शरीर निरोग रहता है। इसके असंतुलित रहने पर चित्त का चलायमान होना, अस्थिर रहना, मानसिक तनाव का बना रहना आदि कई विपरीत परिणाम आते हैं। इस मुद्रा में एड़ी का उठा हुआ हिस्सा कुण्डलिनी शक्ति पर दबाव दिया हुआ रहने से अग्निदीप्त होती है, मूलाधार से शक्ति का उत्थान होता है यह प्रथम आभ्यन्तर अग्नि है जिसके योग से सुख की ऊर्ध्व गति होती है। वह स्वाधिष्ठान की अग्नि से सूक्ष्म होकर मणिपुर चक्र में और सूक्ष्म होकर ऊर्ध्वगति रूप होती है। इस तरह कुण्डलिनी पर दबाव मोक्ष रूपी कपाट को खोलकर मोक्ष मार्ग दिखाता है। गुदा द्वार पर दबाव एवं संकुचन होने से बवासीर नहीं होता। यदि बवासीर हो तो उसे ठीक करने में सहयोग करता है। योग मुद्रा में हाथ जोड़ने की स्थिति है वह भी रहस्यप्रद है। यह मुद्रा विनय सूचक तो है ही, हथेलियों के मध्य पोलापन न रहने से ऊर्जा का निर्माण भी होता है, प्रभावी तरंगों का नि:सरण होता है। नमस्कार मुद्रा में प्रवाहित तरंगें अपने द्वारा की जा रही प्रार्थना एवं स्तुति को बहुत प्रभावी बना देती हैं, आत्म निष्ठा व एकाग्रता पूर्वक किया गया गुणगान इन तरंगों से समन्वित होकर बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं जो पलक झपकने भर में समस्त विश्व (14 राजलोक) में अपना उद्देश्य प्रसारित कर देते हैं। विशेष स्पष्टीकरण के लिए समझ सकते हैं कि जिस प्रकार समुद्री जहाज में ओसिलेटर यंत्र के द्वारा कर्ण अगोचर नाद की तरंगों को समुद्र तल की ओर भेजा जाता है और वह तरंग चट्टान से टकराकर लौटती है तथा लौटकर आने के समय से चट्टान की दूरी का बोध कराती है उसी प्रकार वीतराग प्रभु की महिमा को श्रद्धा और भक्ति के स्पन्दन द्वारा हथेलियों से उत्पन्न तरंगों के माध्यम से वातावरण को तरंगित करते हुए
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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