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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......181 विधि ___"अन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकोशाकार हस्ताभ्यां कुक्ष्युपरि कूपरस्थाभ्यां योग मुद्रा।"
दोनों हाथों की अंगुलियों को एक-दूसरे के बीच में डालते हुए हाथों को कोशाकार रूप में बनायें। फिर हाथों की कोहनियों को कुक्षि (उदर भाग) के पर स्थिर करने पर योग मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
यह मुद्रा बनाते समय वज्रासन में बैठकर, बाएं पैर को थोड़ा सा आगे बढ़ाते हुए घुटने को ऊँचा करते हैं, दाहिना घुटना भूमि को छूता हुआ रहता है, एड़ी का हिस्सा गुदा के स्थान पर दबाव.देता हुआ रहता है, एड़ी के कुछ ऊपर का उठा हुआ हिस्सा कुण्डलिनी को दबाव देता हुआ रहता है। कोहनियाँ पेट के समीप एवं हथेलियाँ नमस्कार मुद्रा में रहती हैं। इस मुद्रा को धारण करते समय बीसों अंगुलियों, मूलाधार चक्र, कुण्डलिनी, पिंडली की नसों एवं बायें हाथ के अंगूठे पर दबाव पड़ता है तथा शरीर का भार दाहिने घुटने की ओर रहता है।
__ शरीर की उपर्युक्त स्थिति के आधार पर विश्लेषण करें तो अवगत होता है कि जब शरीर का अधिकांश भार दाहिने हिस्से पर आ जाता है तो बायें हिस्से का भार कम हो जाता है। बाएं हिस्से में हृदय रक्त प्रक्षेपक यन्त्र है। इस ओर के हिस्से का भार कम हो जाने से रक्त प्रक्षेपक यंत्र का कार्य सरल होने लगता है, जिससे शरीर में रक्त प्रवाह अच्छा हो जाता है और प्रसन्नता, उल्लास एवं कार्य क्षमता में अभिवृद्धि होती है।
___ इस मुद्रा में दाहिना घुटना नीचा और बायां घुटना ऊँचा रहता है। लौकिक जीवन में हम देखते हैं कि दौड़ने वालों की मुद्रा लगभग इसी प्रकार की रहती है। एन.सी.सी. सेना में भी आगे बढ़ने में बायां पैर आगे रहता है। योग मुद्रा में अरिहंत परमात्मा की महिमा, आदि के द्वारा उनसे जुड़ना चाहते हैं, आत्म क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं अत: यह प्रगति सूचक मुद्रा है।
इस मुद्रा में एड़ी का हिस्सा गुदा स्थान पर दबाव देता हुआ रहता है। योगशास्त्र के अनुसार मूलाधार चक्र गुदा द्वार पर अधोमुख कमल दल के रूप में अवस्थित है। अपने नाम के अनुसार यह चक्र सुषुम्ना नाड़ी के मूल में है।