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172... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा करती है। यह प्राण, अपान एवं उदान वायु के प्रवाह को सन्तुलित करती है। इससे दैहिक दौर्बल्य का निर्गमन होता है। इस मुद्रा के प्रभाव से वायु और आकाश तत्त्व निरोग अवस्था में रहते हैं। यह नेत्र शक्ति में भी लाभ पहुँचाती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से साधक के मन में उच्च भावनाओं का प्रस्फुटन होता है। ___ यह मुद्रा मस्तिष्क शक्ति को बढ़ाकर मन को ध्यान की ओर प्रवृत्त करती है और वैचारिक द्वन्द्व समाप्त कर मैत्री भावना विकसित करती है।
इस मुद्राभ्यास से अनाहत चक्र और आज्ञाचक्र का जागरण होता हैं। परिणामत: मोहदशा न्यून होती है और अहंकार, कपट, दुराग्रह जैसे दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं। विशेष
• एक्यूप्रेशर के अनुसार यह मुद्रा अक्षसूत्र मुद्रा के समान लाभकारी है।
• इसके अतिरिक्त बिंब मुद्रा में सहस्रार चक्र पर दबाव पड़ता है। इससे आध्यात्मिक शक्ति का विकास होता है।
• यह ऐच्छिक नाड़ी तन्त्र, हाइपोथेलेमस ग्लान्ड, पीनियल ग्लान्ड के स्रावों को नियन्त्रित करती है।
• मानसिक गड़बड़ियों को दूर करने में भी सहयोग करती है। 68. प्रवचन मुद्रा
प्रवचन का शाब्दिक अर्थ होता है प्रकृष्ट वचन, उत्तम वचन, श्रेयस्कारी वचन। सामान्यतया साधु-सन्तों, ऋषि-साधकों द्वारा दिये गये उपदेश को प्रवचन कहते हैं। उपदेश दान की भी एक विधि होती है। जैन परम्परानुसार उपदेश करते हुए दाहिने हाथ के अंगूठे को तर्जनी के अग्रभाग से संयुक्त करके रखना चाहिए। क्योंकि यह मुद्रा करने पर अग्नि तत्त्व (अंगूठा) और वायु तत्त्व (तर्जनी) का संयोग होता है उससे मस्तिष्क स्थानीय पीनियल एवं पीयूष ग्रन्थियाँ जागृत होकर ज्ञान तंतुओं को क्रियाशील करती हैं। वैसे भी मस्तिष्क ज्ञान का केन्द्र है अत: बौद्धिक क्षमता का उत्पादन होता है।
प्रतिष्ठा के अन्तिम दिन आचार्य भगवन्त के द्वारा प्रतिष्ठा की महिमा के सम्बन्ध में मार्मिक प्रवचन दिया जाता है। इसीलिए प्रवचन मुद्रा का उल्लेख है। इस मुद्रा के माध्यम से गणधर परम्परा को भी बल मिलता है क्योंकि गणधर