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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......167 दाएं हाथ की अंगुलियों को ऊपर की ओर करके उन्हें पताका के आकार के समान करने पर अभय मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से इस मुद्रा का प्रयोग अनियन्त्रित ऊर्जा को नियन्त्रित करता है। ___इससे वायु और आकाश तत्त्व सर्वाधिक रूप से प्रभावित होते हैं। परिणामत: हृदय सम्बन्धित एवं वायु सम्बन्धित तकलीफों से आराम मिलता है। इच्छाशक्ति का विकास होता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा साधक के उद्वेगों को शान्त कर प्रेम, करुणा, दया और अपरिग्रह की भावना को बढ़ाती है।
- इस मुद्रा के द्वारा अनाहत चक्र जागृत होने के कारण सहानुभूति, सेवा, सहकारिता और उदारता जैसे सद्गुणों का आविर्भाव होता है।
इस मुद्रा की मदद से आज्ञा चक्र भी प्रभावित होता है उससे शुभाशुभ वृत्तियों का निरोध होने लगता है। 65. वरद मुद्रा ___वरद आशीर्वाद सूचक शब्द है। 'वर' अर्थात श्रेष्ठ, 'द' अर्थात देने वाला - जिस मुद्रा के द्वारा श्रेष्ठ वस्तु की प्राप्ति हो उसे वरद मुद्रा कहते हैं। संस्कृत कोश के अनुसार वर देने वाला, वरदान प्राप्त करने वाला, वरद कहलाता है। यहाँ वर से तात्पर्य मंगल आशीर्वाद से है।
भारतीय संस्कृति में किसी भी शुभ कार्य का प्रारम्भ करने से पूर्व पूज्यजनों का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। साथ ही इष्ट देवों का स्मरण भी किया जाता है ताकि उनकी सद्भावनाओं का हमें बल मिल सकें। आशीर्वाद प्राप्ति से न केवल वांछित सिद्धि होती है प्रत्युत असाध्य विघ्नों का निवारण भी होता है।
वरद मुद्रा के माध्यम से श्रेष्ठ कार्य अबाधित रूप से सम्पन्न होते हैं अत: यह मुद्रा प्रासंगिक है। विधि
"तेनैवाधो मुखेन वरद मुद्रा।" अभय मुद्रा को अधोमुख करने पर वरद मुद्रा बनती है।