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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......157 संस्कार है, वह इसी स्थान से संबद्ध है। इस मुद्रा के माध्यम से शिखा स्थान को जागृत करते हैं जिससे अध्यात्म ज्ञान की प्राप्ति होती है।
यहाँ त्रिशिखा शब्द का उल्लेख तीसरे नेत्र की तुलना में किया गया मालूम होता है। जिस तरह दोनों भौंहों के मध्य तीसरे नेत्र का वास है उसी तरह मस्तिष्क पर भी दोनों शिखरों के मध्य इसका निवास है। इस स्थान पर दबाव पड़ने से अथवा इसके जागृत होने पर ब्रह्मनाद सुनाई देने लगता है और दिव्यज्ञान की अनुभूति होने लगती है।
इस मुद्रा को बनाते वक्त तीन शिखाओं जैसा आकार निर्मित होता है। उसमें मध्य शिखा दीर्घाकार बनती है। वह प्रतीक रूप में इस स्थान की उच्चता को दर्शाती है। मूलत: त्रिशिखा मुद्रा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के निमित्त की जाती है। विधि
___ 'संमुख हस्ताभ्यां वेणीबन्धं विधाय मध्यमांगुष्ठकनिष्ठिकानां परस्पर योजनेन त्रिशिखामुद्रा।"
दोनों हाथों को एक-दूसरे के आमने-सामने करके अंगुलियों को गूंथ दें। फिर मध्यमा को मध्यमा से, अंगठे को अंगठे से, कनिष्ठिका को कनिष्ठिका से परस्पर जोड़ने पर त्रिशिखा मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से अग्नि, आकाश एवं जल तत्त्व पर सम्यक् प्रभाव पड़ता है।
इससे पचन-पाचन की क्रिया सुचारु रूप से सम्पन्न होती है। शरीर में वात, पित्त एवं कफ सन्तुलित रहते हैं।
• आध्यात्मिक दृष्टि से मानसिक शान्ति का उद्भव होता है।
यह मुद्रा साधक को सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठाकर गुणातीत अवस्था की उपलब्धि में परम सहयोग करती है। विशेष __• एक्यूप्रेशर के अनुसार यह मुद्रा बवासीर रोग के उपचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
• कब्ज, मसा, मिरगी, चक्कर आना, वीर्य मन्दता, कमर दर्द, पाँव और मांसपेशियों की जकड़न आदि को दूर करने में सहायता करती है।
• यह मुद्रा शारीरिक ऊर्जा को संतुलित रखती है।