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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......153 कार्यों का त्याग, गुरुजनों की पूजा, सद्गुरु का योग, आज्ञानुसार प्रवृत्ति आदि की प्राप्ति हो। ___इससे पृथ्वी, अग्नि एवं आकाश तत्त्व संतुलित रहते हैं परिणामतः हृदय सम्बन्धी रोगों में राहत मिलती है। इस मुद्रा के प्रभाव से मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष जागृत और पुष्ट होते हैं। पीयूष एड्रिनल एवं प्रजनन ग्रन्थियों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। फेफड़ा, उदर एवं मेरुदण्ड स्वस्थ रहता है। यह मुद्रा विसर्जन, पाचन एवं संचरण तंत्र को व्यवस्थित रखती है। इससे मनोविकार घटते हैं एवं परमार्थ में रुचि बढ़ती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से साधक को दिव्यदृष्टि की प्राप्ति होती है। साधक सर्वशास्त्रों का ज्ञाता, समदर्शी एवं सर्वकल्याणकारी बनता है। __योगशास्त्रानुसार यह मुद्रा सकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न करते हुए संकल्पबल एवं पराक्रम को बढ़ाती है, आन्तरिक ज्ञान एवं विशिष्ट शक्तियों का जागरण करती है तथा व्यष्टि एवं समष्टि में समन्वय करती है। विशेष
• एक्यूप्रेशर चिकित्सा में इस मुद्रा के द्वारा रचनात्मक शक्तियों का संयोजन होता है।
• यह मुद्रा अति ऊर्जा को नीचे की ओर प्रवाहित कर वात दोष को ठीक करती है।
• स्व-संचालित नाड़ी तन्त्र, पीयूष ग्रन्थि, लघु मस्तिष्क, नाक एवं बाईं आँख को नियन्त्रित करती है।
• इससे ज्ञान शक्ति बढ़ती है।
• भौतिक स्तर पर यह मुद्रा पाचन तन्त्र, मस्तिष्क एवं जोड़ों से सम्बन्धित समस्याओं का निवारण करती है तथा कैन्सर, अल्सर, ब्रेनट्यूमर, मिरगी, अनिद्रा आदि के निवारण में सहायक बनती है।