________________
152... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
जब स्वाति नक्षत्र की बूंद सीप में गिरती है तब मोती का उद्भव होता है। उसी तरह जब शुभ भावना रूपी जल से आत्म कल्मषों को दूर किया जाता है तब आत्मा मोती सदृश धवल एवं निर्मल परमात्म पद को वर लेती है।
मोती के सम्बन्ध में कहावत है 'गहरे पानी पैठ' अर्थात समुद्र के गहरे पानी में यह प्राप्त होता है तथा गहन खोज के बाद इसकी प्राप्ति होती है। वैसे ही अन्तर्मग्नता से प्रभु स्तुति करने पर दिव्य पद उपलब्ध होता है। इस तरह मुक्ताशुक्ति मुद्रा के द्वारा अनेक संदेश और प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं।
चेतना मूलतः उज्ज्वल, धवल, शुभ्र स्वरूपी है। किन्तु अभी हमारी आत्मस्थिति सीप में रहे हुए मोती के समान है। जब तक मोती सीप से आवृत्त रहता है उसका कोई मूल्य नहीं आंकता और न ही वह अपने मूल स्वरूप को देख पाता है, परन्तु सीप से अलग होते ही उसका मूल्य बढ़ जाता है। उसी तरह संसारी प्राणियों की आत्मा राग- - द्वेषादि अशुभ कर्मों से आवृत्त है। इनसे पृथक होते ही चेतना का मूल रूप प्रकट हो जाता है और उसका मूल्य समझ में आने लगता है।
यह मुद्रा निज स्वरूप की प्रतीति एवं जिनत्व पद की प्राप्ति की भावना से की जाती है।
विधि
" किंचिद्गर्भितौ हस्तौ समौ विधाय ललाटदेशयोजनेन मुक्ताशुक्तिमुद्रा । " दोनों हाथों को सीप की भाँति बनाकर एवं अंगुलियों के अग्र भागों को समान रूप से योजित कर ललाट प्रदेश पर स्थित करना मुक्ताशुक्ति मुद्रा है। सुपरिणाम
• वैज्ञानिक दृष्टि से मुक्ताशुक्ति मुद्रा में नमस्कार मुद्रा की तरह अंगुलियों पर दबाव नहीं पड़ता, अतः ऊर्जा तरंगे प्रवाहित नहीं होतीं। नमस्कार मुद्रा में अपने द्वारा किये जा रहे गुणगान, स्तवन आदि के भावों को विश्व में प्रसारित ( ट्रान्समीट) करने का कार्य किया जाता है जबकि मुक्ताशुक्ति मुद्रा में ग्रहण ( रिसेप्शन) करने का कार्य होता है।
जयवीयराय सूत्र बोलते वक्त एक भक्त प्रभु के समक्ष प्रार्थना करता है कि आपकी कृपा से मुझे भवनिर्वेद, मार्गानुसारिता, इष्टफलसिद्धि, लोकविरुद्ध