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132... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
आचार्य जिनप्रभसूरि ने प्रस्तुत मुद्रा को देवदर्शन की मुद्राओं के अन्तर्गत स्थान दिया है। इससे उपनिषदों का मन्तव्य सापेक्षतः सत्य मालूम होता है।
सांकेतिक रूप में यह मुद्रा संदेश देती है कि हर आत्मा स्वयं को देखें, बाहर न भटकें। जहाँ स्वयं की ओर देखने का प्रश्न खड़ा होता है वहाँ व्यक्ति अवचेतन मन को हृदय पर केन्द्रित करता है, हृदय की ओर निहारने लगता है। कोई मानव इस तरह का प्रयत्न नहीं करता कि मुझे आत्मानुभूति के लिए हृदय को टटोलना होगा, हृदय की ओर विचारों को आकृष्ट करना होगा, सब कुछ सहज और स्वत: होता है। अनेक तरह के ध्यान प्रयोग हृदयाश्रित हैं। ____ सार रूप में उच्च यह एक स्तरीय मुद्रा है। इस मुद्रा के माध्यम से बहिर्मुख वृत्तियों को अन्तर्मुखी किया जाता है। विधि
_ "पराङ्मुखहस्ताभ्यां वेणीबन्यं विधायाभिमुखीकृत्य तर्जन्यौ संश्लेष्यः शेषांगुलिमध्येऽङ्गुष्ठद्वयं विन्यसेदिति पार्श्वमुद्रा।" ____दोनों हाथों को एक-दूसरे से विपरीत रखते हुए अंगुलियों को गूंथे। फिर हाथों को स्वयं की ओर करें। फिर तर्जनी अंगुलियों को परस्पर में जोड़कर शेष अंगुलियों के मध्य भाग में दोनों अंगूठों को स्थिर करने पर पार्श्व मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा शरीर को शक्ति प्रदान करती है। इससे खांसी ठीक होती है। दमा और सर्दी का प्रकोप कम होता है। सायनस एवं लकवा जैसी बीमारियाँ ठीक होती हैं। इस मुद्रा के द्वारा पाँचों तत्त्व प्रभावित होते हैं किन्तु आकाशतत्त्व एवं जल तत्त्व अधिक शक्तिशाली बनते हैं।
यह मुद्रा विशुद्धि चक्र को प्रभावित करती है। इससे शरीर की सभी गतिविधियाँ सुचारु रूप से चलती हैं।
• आध्यात्मिक दृष्टि से उच्चतर चेतना और आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। चित्त की एकाग्रता बढ़ती है और विषय-वासनाएँ मन्द होती हैं।
इससे मूलाधार चक्र की ऊर्जा का उत्पादन होता है जो साधना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
विशेष
• एक्यूप्रेशर रिफ्लेक्सोलोजी के अनुसार यह मुद्रा शारीरिक ऊर्जा प्रवाह को सन्तुलित रखती है। साथ अंगुलियों का सूनापन, गठिया, सन्धिवात, बेहोशी, सदमा लगना आदि स्थितियों में लाभदायक मानी गई है।