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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......83
प्राप्त है। धार्मिक पर्व, पूजा, हवन, युद्धारम्भ, विजय-वरण, विवाह राज्याभिषेक, देवार्चन जैसे अवसरों पर शंख का प्रयोग (ध्वनि) शुभ और अनिवार्य माना जाता है। आज भी हमारे समाज में पूजा-पाठ, आरती, विवाह जैसे प्रसंगों पर विभिन्न वाद्यों के साथ-साथ 'शंखनाद' की प्रथा प्रचलित है। ___ सोलह विद्यादेवियों के पूजा आदि प्रसंगों पर शंख मुद्रा दिखाने के दो अभिप्राय ज्ञात होते हैं। प्रथम अभिप्राय के अनुसार उपासक के लिए सौख्य, समृद्धि एवं शुभता का सर्जन करने हेतु शंख मुद्रा दिखायी जाती है। द्वितीय अभिप्राय के अनुसार रोहिणी नाम की प्रथम विद्यादेवी को यह मुद्रा प्रिय है अथवा उसका अस्त्र विशेष होने से दिखायी जाती है। विधि ___ "वामहस्तेन मुष्टिं बवा कनिष्ठिकां प्रसार्य शेषांगुलीरंगुष्ठेन पीडयेदिति शंखमुद्रा।"
बाएं हाथ को मुट्ठी रूप में बाँधकर कनिष्ठिका अंगुली को प्रसारित करते हुए एवं शेष अंगुलियों को अंगूठे के द्वारा आक्रमित (पीड़ित) करने पर शंख मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा का प्रयोग अपान वायु को संयमित करता है, जिससे हृदयाघात का भयंकर दौरा भी कुछ क्षणों में सन्तुलित हो सकता है
और रोगी मृत्यु संकट से बच सकता है। इस प्रकार यह मुद्रा हृदय रोगों में लाभ देती है तथा हृदय को बल प्रदान करती है।
___ यह मुद्रा एलर्जी, मनोविकार, पित्ताशय, तिल्ली, फेफड़ें एवं हृदय सम्बन्धी रोगों का निवारण करती है।
यह अग्नि एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए आन्तरिक ऊर्जा का अनुभव करवाती है तथा पाचन तंत्र, आदि के कार्यों का नियमन करती है।
थायमस, एड्रिनल एवं पैन्क्रियाज को प्रभावित करते हुए यह बालकों के विकास में विशेष सहायक बनती है। संचार व्यवस्था, हलन-चलन, श्वसन, रक्त परिभ्रमण, अनावश्यक पदार्थों के निष्कासन में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह मधुमेह को नियंत्रित करने में भी विशेष सहायक मानी गई है। हृदय की धड़कन और कमजोरी में इस मुद्रा से राहत मिलती है।