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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......79 अपने-अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में बुला रहे हैं, स्वतन्त्र अस्तित्व के रूप में आमन्त्रित कर रहे हैं और स्वतन्त्र सत्ता के रूप में पुष्पादि सामग्री अर्पित कर रहे है अत: सर्वदेव प्रसन्न हों। जैसे ध्वजा उच्च स्थान पर रहती है वैसे ही हम सभी सर्वोच्च स्थानीय सिद्ध पद को उपलब्ध कर सकें। ध्वजा प्रगति का भी संकेत करती है। हे भगवन्! आपकी पूजा-आराधना से हमारी आत्मभावनाएँ भी चरम शिखर का स्पर्श करती हुई परमात्मपद की संप्राप्ति करवायें, ध्वज मुद्रा के माध्यम से इस तरह के मनोभाव अभिव्यक्त किये जाते हैं। __ अत: ध्वज मुद्रा, पूजा के रूप में आमंत्रित देवी-देवताओं को प्रसन्न रखने तथा इष्ट कार्यों की सिद्धि पाने के उद्देश्य से की जाती है। विधि ___"संहतोांगुलिवामहस्तमूले चांगुष्ठं तिर्यक् विधाय तर्जनी चालनेन ध्वजमुद्रा।" बाएं हाथ की अंगुलियों को ऊपर की ओर करते हुए उन्हें मिलाएं, फिर अंगूठे के अग्रभाग को हथेली के मूल स्थान पर रखें तथा तर्जनी अंगुली को चलाते रहने से ध्वज मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से आकाश तत्त्व संतुलित रहता है। इससे नाक, कान, गला, मुँह एवं स्वर में आए हुए विकार दूर हो जाते हैं। __ शरीरगत समस्याएँ जैसे- ब्रेन ट्यूमर, पार्किन्सन्स, कानों का संक्रमण, सिरदर्द, पागलपन, अनिद्रा आदि का निवारण इस मुद्रा के प्रयोग से हो सकता .. प्रजनन सम्बन्धी अंग विकसित और सुचारु होते हैं। इस मुद्राभ्यास से शरीर कांतिवान बनता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा यह मुद्रा पाचन क्रिया में लाभ देती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा अन्तर्ज्ञान एवं अवचेतन मन को जागृत करती है। इसी के साथ यह दुष्टता के सर्पो को गरुड़ की तरह परास्त करने में भी समर्थ है। साधक उच्च आध्यात्मिक अवस्था की ओर अभिमुख होता है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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