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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......71
गोवृष मुद्रा-2 कहते हैं। जैन परम्परा के प्रचलित ‘णमुत्थुणंसूत्र' में तीर्थंकर पुरुषों के लिए भी इस तरह के विशेषण प्रयुक्त कर उन्हें दुनिया में सर्वोच्च कोटि पर माना गया है। __यहाँ इस मुद्रा के द्वारा अन्य देवों की तुलना में उपस्थित देवों को सर्वोत्तम स्वीकार किया गया है।
प्रस्तुत मुद्रा का मूल प्रयोजन आराध्य देवी-देवताओं को प्रसन्न करते हुए मांगलिक कृत्यों को निर्बाध रूप से सम्पन्न करना है। विधि ____ "बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य मध्यमातर्जन्योर्विस्फारित प्रसारणेन गोवृषमुद्रा।"
दाहिने हाथ की बंधी हुई मुट्ठी से मध्यमा और तर्जनी अंगुलियों को प्रसारित करने पर गोवृष मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा श्वास सम्बन्धी रोगों में लाभदायक है। यह