________________
विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......51 यह देवी-देवता के आह्वान की पूर्व भूमिका रूप मुद्रा है। विधि "प्रसारिताधोमुखाभ्यां हस्ताभ्यां पादांगुलीतलामस्तकस्पर्शान् महामुद्रा।" __दोनों हाथों को नीचे की ओर प्रसारित करके पैरों के अंगुली तल से लेकर मस्तक पर्यन्त हस्तांगुलियों का स्पर्श करना महामुद्रा कहलाती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा हमारे प्राणमय कोष को जागृत करती है तथा व्यान नामक प्राणशक्ति को पूरे शरीर में प्रवाहित करती है इससे श्वास सम्बन्धी रोगों का सहजता से निवारण होता है।
चक्र अभ्यासी साधकों के अनुसार महामुद्रा से आज्ञा, अनाहत एवं ब्रह्म चक्र जागृत होते हैं, इससे ज्ञान पक्ष सुदृढ़ होता है, आत्मनियंत्रण एवं एकाग्रता में वृद्धि होती है तथा चित्रकला, नृत्य, संगीत, कविता एवं सृजनात्मक कार्यों में रुचि का विकास होता है। ___ शारीरिक समस्याएँ जैसे दुश्चिंता, सिरदर्द, पागलपन, मनोविकार, एलर्जी, हृदय सम्बन्धी रोग, ब्रेन ट्यूमर, फेफड़ों के विकार, मिरगी, अनिद्रा आदि में भी यह लाभदायी है। ___ इस मुद्राभ्यास से आकाश एवं वायु तत्त्व संतुलित होते हैं। यह मुख्य रूप से श्वसनतंत्र एवं रक्त संचरण प्रणाली को नियमित करती है तथा कंठ, हृदय, फेफड़ें एवं नाक, कान, मुँह से सम्बन्धित रोगों का निवारण करती है।
इस मुद्रा के द्वारा पीयूष एवं पिनियल ग्रंथियों पर प्रभाव पड़ता है। यह हमारी जीवन पद्धति, मनोवृत्ति, रक्त दबाव, मानसिक प्रतिभा, प्रजनन अंगों की क्रियाशीलता को नियंत्रित करती है। निर्णय एवं नियंत्रण शक्ति को विकसित करती है तथा वाचालता, तनाव, अनुत्साह, अप्रसन्नता, अस्थिरता आदि का निवारण करती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से इस मुद्रा का अभ्यासी साधक अशुभ विचारों से निवृत्त और शुभ विचारों से युक्त होता है। विशेष
• इस मुद्रा का वैशिष्ट्य 'महामुद्रा' इस नाम से ही स्पष्ट हो जाता है।
• हठयोग में भी इस नाम की मुद्रा प्राप्त होती है किन्तु स्वरूप और प्रयोजन की दृष्टि से दोनों में भिन्नता है।