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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......49 रक्त कैन्सर, मासिक धर्म की अनियमितता, गुर्दे की समस्या, अंडाशय, गर्भाशय आदि से सम्बन्धित समस्याएँ, अनिद्रा, पागलपन, कोमा आदि को नियंत्रित करने में यह मुद्रा अत्यंत उपयोगी है। जल एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए श्वसन एवं प्रजनन तंत्र का नियमन करती है। इसी के साथ नाक, कान, मुँह, स्वर तंत्र, मल-मूत्र अंग, गुर्दे आदि के विकारों को दूर करने में भी अस्त्र मुद्रा उपयोगी है। थायरॉइड, पेराथायरॉइड एवं प्रजनन ग्रन्थियों के स्राव को नियंत्रित करते हुए यह मुद्रा त्वचा में रूखापन, बालों का झड़ना, चेहरे के आकर्षण में कमी होना आदि में लाभ देती है। इससे कटिभाग स्वस्थ रहता है। • मानसिक स्तर पर विचारों में निश्छलता, निर्दम्भता, निर्विकारता आदि गुणों का जन्म होता है तथा लघु मस्तिष्क की सक्रियता में अभिवृद्धि होती है। • आध्यात्मिक स्तर पर इस मुद्रा का प्रयोग साधक में रहे अहंकार आदि विकारों का नाश करता है। इससे चित्तवृत्तियों के निरोध की अद्भुत क्षमता जागृत होती है। विशेष • इस मुद्राभिव्यक्ति के द्वारा एक अस्त्र विशेष का बाह्य स्वरूप निर्मित किया जाता है। इसलिए इस मुद्रा का अन्वर्थक नाम अस्त्र मुद्रा है। __ • एक्यूप्रेशर के अनुसार यह मुद्रा पिच्युट्री ग्लैण्ड, पेन्क्रियाज एवं लीवर को प्रभावित करती है। .. • एक्यूप्रेशर मेरिडियनोलोजी के अनुसार इस मुद्रा के द्वारा मस्तिष्क एवं ज्ञानेन्द्रिय सम्बन्धी बीमारियों का उपचार किया जा सकता है। ___ इससे वात दोष ठीक होता है, ज्ञानेन्द्रियाँ खुल जाती हैं और उग्रता घटती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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