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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......39
विधि
"तावेव मुष्टी समीकृतौ ऊर्ध्वागुष्ठौ शिरसि विन्यसेदिति शिरोमुद्रा।"
हृदय मुद्रा के समान ही दोनों हाथों को मुट्ठियों के रूप में संयोजित कर ऊर्ध्वाकार अंगुष्ठों को मस्तक से स्पर्श करवाना शिरो मुद्रा है।
शिरो मुद्रा सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा की मदद से दाहिनी ओर के मस्तिष्क की क्रियाएँ संतुलित रहती है। शिरो मुद्रा में पंच तत्त्वों को नियन्त्रित करने वाली पाँचों अंगुलियाँ परस्पर में मिलती हैं जिससे तत्त्वों का सन्तुलन बना रहता है। इस मुद्रा से अग्नि तत्त्व और आकाश तत्त्व अधिक प्रभावित होते है। फलस्वरूप हृदय तन्त्र सुदृढ़ एवं सक्रिय बनता है और उदर विकार दूर होते हैं।
• मानसिक स्तर पर विचारों की भाग दौड़ कम होती है। सोचने एवं समझने के तरीके में बदलाव आता है। इस मुद्रा के द्वारा बुद्धि, स्मृति, चैतन्य शक्ति आदि को प्रबल किया जा सकता है।