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________________ अध्याय-2 भरतमुनि रचित नाट्य शास्त्र की मुद्राओं का स्वरूप, प्रयोजन एवं उनके लाभ विविध कलाओं में नाट्यकला का अप्रतिम स्थान है। आदि काल से इस कला ने प्राचीनतम धरोहर के रूप में अपना स्थान पाया है। नाट्यकला के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अन्तर्गत विकसित हुई है। शरीर द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ मुख्यतया तीन प्रकार की मालूम होती है- 1. खड़े रहकर अथवा चलते-चलते पैरों से हो सकने वाली क्रियाएँ 2. बैठकर अथवा लेटकर हो सकने वाली क्रियाएँ और 3. हाथों से की जाने वाली क्रियाएँ। नाट्य अभिनय में भावों को प्रदर्शित करने हेतु हस्त क्रियाओं (मुद्राओं) का विशेष स्थान है। अभिनय की दृष्टि से ऐसा कोई नाट्यार्थ नहीं है जिसे रूप देने में हस्ताभिनय का प्रयोग न होता हो। हस्ताभिनय के माध्यम से मानव हृदय के सूक्ष्मतम भावों की अभिव्यक्ति भी सहज रूप से हो सकती है। हाथ की प्रत्येक मुद्रा के मूल में अन्तर्भावों की प्रेरणा अवश्य रहती है। नाट्य में वाचिक एवं कायिक अभिनय के साथ-साथ हस्त मुद्राओं के द्वारा रहस्यमय अर्थों को भी अभिव्यक्त किया जाता है। मुद्रा का यथार्थ एवं मूलस्वरूप नाट्यकला में ही उपलब्ध होता है। इस सम्बन्ध में कई तरह के शिक्षण आज भी दिये जाते हैं। भारतीय विद्वानों ने इस कला को अक्षुण्ण बनाये रखने एवं इसके महत्त्व को दिग्दर्शित करने के प्रयोजन से अनेक नाट्य शास्त्र रचे हैं। ऐतिहासिक प्रमाणों से अवगत होता है कि नाट्य शास्त्र के आदिकर्ता भरतमुनि ईसा पूर्व प्रथम/द्वितीय शताब्दी के थे। उनके द्वारा विरचित यह ग्रन्थ 'नाट्य शास्त्र' के नाम से प्रसिद्ध है। नाट्य मुद्राओं की पुरातनता को चिरस्थायी
SR No.006253
Book TitleNatya Mudrao Ka Manovaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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