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________________ अध्याय-6 शिल्पकला एवं मूर्तिकला में प्राप्त हस्त मुद्राएँ मुद्राओं का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। आदिम युग से ही इस विषयक उल्लेख एवं संकेत प्राप्त होते हैं। पुरातत्त्व खोजों एवं प्राचीन मूर्तियों से इसके स्पष्ट प्रमाण प्राप्त होते हैं। जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों ही परम्पराओं में शिल्पकला के रूप में मुद्रा प्रयोग पुरातन काल से सुसिद्ध हो जाता है। हजारों वर्ष प्राचीन प्रतिमाओं की प्राप्ति मुद्राओं की ऐतिहासिकता को तो सिद्ध करती ही है साथ ही पूजा-उपासना आदि में मुद्राओं के महत्त्व को भी सूचित करता है। इस अध्याय के माध्यम से साधारण जनता देवी-देवताओं की मूर्तियों के पीछे अन्तर्भूत भाव एवं रहस्यों से भी परिचित हो पाएगी। टी. ए. गोपीनाथ राव ने “एलीमेन्ट्स ऑफ हिन्दू आइकनोग्राफी' नामक एक पुस्तक लिखी है। जिसमें उन्होंने शिल्पकला एवं मूर्तिकला में से प्राप्त हस्त मुद्राओं का चित्र वर्णन किया है। तदनुसार सामान्य वर्णन इस प्रकार है-1 अभय मुद्रा गोपीनाथ राव के अनुसार देखें, फलक 5, चित्र 1-3 तीन चित्र अभय हस्त मुद्रा से सम्बन्धित हैं। इन्हें संरक्षण देने वाली मुद्रा कहा गया है। जिसमें हाथ ऊपर की ओर उठा हुआ, हथेली सामने की तरफ, अंगुलियाँ सटी हुई एवं किंचिद झुकी हुई हो, वह अभय हस्त मुद्रा होती है। वरददान मुद्रा देखें, फलक 5, चित्र 4-6 तीन चित्र वरद मुद्रा के सूचक हैं। इन्हें राव के द्वारा दान की मुद्रा कहा गया है। जिसमें बायाँ हाथ नीचे की तरफ रखते हुए हथेली सामने की तरफ रहती है तथा अंगुलियाँ नीचे की ओर खुली रहती है, वह वरद दान मुद्रा कहलाती है।
SR No.006253
Book TitleNatya Mudrao Ka Manovaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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