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भारतीय परम्परा में प्रचलित मुद्राओं की विधि एवं उद्देश्य......299 तरफ फैली हुई तथा अंगूठा पृष्ठ भाग अथवा अंगुलियों के पार्श्व भाग में रहने पर परशुरामावतार मुद्रा बनती है।' लाभ __ चक्र- स्वाधिष्ठान एवं सहस्रार चक्र तत्त्व- जल एवं आकाश तत्त्व ग्रन्थि- प्रजनन एवं पीनियल ग्रन्थि केन्द्र- स्वास्थ्य एवं ज्योति केन्द्र विशेष प्रभावित अंग-मल-मूत्र अंग, प्रजनन अंग, गुर्दे, ऊपरी मस्तिष्क एवं आँख। 8. रघुरामावतार मुद्रा
सूर्यवंशी राजा दिलीप के पुत्र का नाम रघु था, जिनके नाम से रघुकुल चला। रघुराम अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र कहलाते हैं।
विष्णु भगवान का एक अवतार रामचन्द्रजी के रूप में भी माना जाता है।
यह नाट्य मुद्रा उस रामावतार की ही सूचक है। इस मुद्रा को दोनों हाथों से दिखाते हैं। विधि
दायीं हथेली मध्यभाग में रहें। मध्यमा, अनामिका
और कनिष्ठिका हथेली के भीतर मुड़ी हुई, अंगूठा, अंगुलियों के प्रथम पोर पर और तर्जनी अंगूठे के ऊपर घूमती हुई रहें।
बायीं हथेली मध्यभाग में, अंगुलियाँ मुट्ठी रूप में और अंगूठा ऊपर
रघुरामावतार मुद्रा उठा हुआ रहने पर रघुरामावतार मुद्रा बनती है।