________________
भारतीय परम्परा में प्रचलित मुद्राओं की विधि एवं उद्देश्य......245 यकृत, तिल्ली, आँतें, मल-मूत्र अंग, प्रजनन अंग, गुर्दे, स्नायु तंत्र, निचला मस्तिष्क। 52. नैऋति मुद्रा
नैर्ऋत्य कोण के अधिपति (दिक्पाल) नैऋत देव है। यह मुद्रा नैऋत देव को सूचित करती हुई नाटक आदि में युग्म पाणि से धारण की जाती है। विधि
दायी हथेली आगे की ओर, तर्जनी अंगुली हथेली के भीतर की ओर मुड़ी हुई तथा मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठिका और अंगूठा ऊपर की तरफ फैले हुए रहें।
बायीं हथेली अधोभाग की ओर, मध्यमा और अनामिका हथेली की तरफ मुड़ी हुई तथा अंगूठा इन दोनों अंगुलियों के दूसरे जोड़ को स्पर्श करता हुआ रहे।
फिर तर्जनी और कनिष्ठिका को नीचे की तरफ प्रसरित करने पर नैऋति मुद्रा बनती है। यह मुद्रा कंधो
नैति मुद्रा के स्तर पर धारण की जाती है।40 लाभ
चक्र- स्वाधिष्ठान एवं सहस्रार चक्र तत्त्व- जल एवं आकाश तत्त्व प्रन्थि- प्रजनन एवं पिनियल ग्रन्थि केन्द्र- स्वास्थ्य एवं ज्ञान केन्द्र विशेष
R
-