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________________ अध्याय-2 मुद्रा योग के प्रकार एवं वैज्ञानिक परिशीलन यह दृश्यमान जगत जीव और जड़ का, पुद्गल और चेतन का सम्मिश्रित रूप है। इस सृष्टि में मुख्य रूप से जीव-अजीव इन द्विविध द्रव्यों का ही अस्तित्व है। जीव द्रव्य एक है तथा अजीव द्रव्य के पाँच प्रकार माने गये हैं इस तरह छः द्रव्यों की परिकल्पना होती है। सामान्यतया चेतन एवं अचेतन द्रव्य ही प्रमुख है। सचेतन मन और अचेतन शरीर दोनों का अपना-अपना आकार है। इन दोनों द्रव्यों से प्रतिसमय ऊर्जा रूप परमाणुओं का ग्रहण और विकिरण होता रहता है। यह ग्रहण एवं विकीर्ण की प्रक्रिया आकृति के अनुसार होती है। किसी भी पदार्थ की आकृतियाँ विशेष रूप से वृत्त - गेंद के समान गोलाकार, परिमंडल - चूड़ी के समान गोलाकार, त्रिंश - त्रिभुजाकार, चतुरंश - चौकी का आकार, आयतन – प्रलम्ब दंडे का आकार आदि कई प्रकार की होती हैं। जिस प्रकार का आकार होता है उसी आकृति की प्रति छवियाँ उस आकार से नि:सृत होती रहती है। यदि विचारधारा या शरीर की प्रवृत्तियाँ शान्त और स्थिर हैं, तो उन क्षणों में गृहीत अथवा विसर्जित ऊर्जा निरन्तर उस प्रकार की आकृतियों के रूप में प्रवाहित होती रहेगी। एक समान आकृतियों के निर्गमित होने से वायुमण्डल पर अद्भुत प्रभाव पैदा हो जाता है। इस तथ्य को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि जैसे यंत्र विशिष्ट आकार की रचना है, मन्त्र विशिष्ट यन्त्रों से परिवेष्टित होकर अलौकिक प्रभाव छोड़ते हैं, मंत्र अधिवासित साधक द्वारा बनाए गए यन्त्र प्राणवन्त बनकर यथेष्ट फल की प्राप्ति कराते हैं वैसे ही प्राणवान व्यक्ति द्वारा निर्दिष्ट मुद्राएँ भी विशेष रहस्यमयी होती है। व्यक्ति के शुभाशुभ परिणामों के आधार पर मुद्रा का प्रभाव घटता-बढ़ता है। अत: मुद्राएँ केवल आकृतियाँ ही नहीं होती, प्रत्युत भावानुरूप शक्ति स्रोत बनकर विभिन्न तत्त्वों का प्रस्फोटन करती हैं और चराचर विश्व को प्रभावित करती हैं।
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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