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।...मुद्रा योग एक अनुसंधान संस्कृति के आलोक में । संभव है। क्योंकि हाथ से मुद्रा बनाकर दिखाने में एवं चित्रकार की दृष्टि और समझ में अन्तर हो सकता है।
चित्र के माध्यम से प्रत्येक पहलु को स्पष्टत: दर्शाना शक्य नहीं होता, क्योंकि परिभाषानुसार हाथ को झुकाना, मोड़ना आदि अभ्यास पूर्वक ही संभव है।
प्राचीन ग्रन्थों में प्राप्त मुद्राओं के वर्णन को समझने में और ग्रन्थ कर्ता के अभिप्राय में अन्तर होने से कोई मुद्रा गलत बन गई हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ।
यहाँ निम्न बिन्दुओं पर भी अवश्य ध्यान दें1. हमारे द्वारा दर्शाए गए मुद्रा चित्रों के अंतर्गत कुछ मुद्राओं में दायाँ हाथ
दर्शक के देखने के हिसाब से माना गया है तथा कुछ मुद्राओं में दायाँ
हाथ प्रयोक्ता के अनुसार दर्शाया गया है। 2. कुछ मुद्राएँ बाहर की तरफ दिखाने की है उनमें चित्रकार ने मुद्रा बनाते
समय वह Pose अपने मुख की तरफ दिखा दिया है। 3. कुछ मुद्राओं में एक हाथ को पार्श्व में दिखाना है उस हाथ को स्पष्ट
दर्शाने के लिए उसे पार्श्व में न दिखाकर थोड़ा सामने की तरफ दिखाया
4. कुछ मुद्राएँ स्वरूप के अनुसार दिखाई नहीं जा सकती है अत: उनकी
यथावत आकृति नहीं बन पाई हैं। 5. कुछ मुद्राएँ विधिवत बनने के बावजूद भी चित्र में स्पष्ट रूप से नहीं
उभर रही हैं। 6. कुछ मुद्राओं के चित्र अत्यन्त कठिन होने से नहीं बन पाए हैं।
• मुद्रा योग का व्यापक रूप से बोध कराने वाला यह प्रथम खण्ड पाँच अध्यायों में वर्गीकृत है।
__ प्रथम अध्याय में विविध ग्रन्थों के अनुसार मुद्रा के भिन्न-भिन्न अर्थ बतलाते हुए उनमें व्यवहार एवं अध्यात्म मूलक परिभाषाओं को एक साथ प्रस्तुत किया है।
द्वितीय अध्याय में मुद्रा के रहस्यात्मक पक्षों को उद्घाटित करते हुए उन्हें आसन, प्राणायाम, ध्यान आदि के समतुल्य सिद्ध किया है।
तृतीय अध्याय ऐतिहासिक तथ्य से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप