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________________ 84...मुद्रा योग एक अनुसंधान संस्कृति के आलोक में यह खासकर स्मरणीय है कि अंग-संकेत मानव की आदि भाषा है। देशकाल के अनुसार यह भाषा वाणी की अपेक्षा कम ही परिवर्तित होती है। किसी को मुँह बनाकर चिढ़ाने की मुद्रा अथवा क्रोध की उग्र मुद्रा संसार के किसी भी क्षेत्र में सभ्य-असभ्य किसी भी व्यक्ति को समान रूप से ही प्रभावित करती है। दूरस्थ व्यक्ति को हाथ से बुलाने का संकेत, भूख प्रकट करने के लिए ग्रास मुद्रा और प्यास के लिये मुख के पास अर्धअंजलि मुद्रा बनाने से दो विभिन्न भाषा-भाषी अपने मन के भाव बोधगम्य बना सकते हैं। जहाँ भाषा की भिन्नता के कारण वाणी भाव सम्प्रेषण में असमर्थ होती है वहाँ मुद्रा के संकेत बहउपयोगी सिद्ध होते हैं अर्थात शरीर के हाव-भाव मनोव्यंजना को सुस्पष्ट रूप से अभिव्यक्त कर देते हैं। इससे निर्णीत होता है कि वचन प्रयोग की अपेक्षा मुद्रा में भावसम्प्रेषण की क्षमता कहीं अधिक व्यापक, सार्वदेशिक और सार्वजनीन है। यह ध्यातव्य है कि भारतीय परम्परा में प्रत्येक शब्द के साथ उसकी आत्मा पर विचार किया जाता है। शब्द यद्यपि संकेत ही होता है फिर भी वह अपने निकटतम भाव का स्पर्श करता है। अत: साधना पद्धति में आकृति (पोज) को मुद्रा कहा गया है। हमारे भावों के अभिरूप भिन्न-भिन्न आकृतियाँ निर्मित होती है और वह उस-उस प्रकार के भावों को समझने-समझाने का सशक्त माध्यम बनती है। सामान्यतः शरीर के ऊपर अभिव्यक्त होने वाली समस्त आकृतियों को ही मुद्रा कहा जाता है किन्तु हम अज्ञानावरण के कारण समस्त भावों को पकड़ नहीं पाते, इसलिए शरीर द्वारा स्थूल रूप से निर्मित होने वाली विशिष्ट आकृतियों को मुद्रा कहा जाना चाहिए। ___ तान्त्रिक साधना में मुद्रा का अर्थ है प्रसन्नता। मुद्रा शब्द “मुद् मोदने' धातु से निष्पन्न है। मोदन अर्थात प्रसन्न करना। जो देवताओं को प्रसन्न कर देती है अथवा जिसे देखकर देवता प्रसन्न होते हैं उसे तन्त्रशास्त्र में मुद्रा कहा गया है। यद्यपि तन्त्रशास्त्र में भी मुद्रा के अनेक अर्थ प्रचलित हैं उनमें निम्न चार अर्थ मुख्य हैं- हठयोग के प्रसंग में मुद्रा का अर्थ है एक विशिष्ट प्रकार का आसन, जिसमें सम्पूर्ण शरीर क्रियाशील रहता है। पूजा के प्रसंग में मुद्रा का अर्थ हाथ और अंगुलियों से बनायी गई वे विशेष आकृतियाँ हैं, जिन्हें देखकर देवता प्रसन्न मग्न होते हैं। जैन और वैष्णव तन्त्रों में मुद्रा का यही अर्थ अभिप्रेत है। तंत्र
SR No.006252
Book TitleMudra Prayog Ek Anusandhan Sanskriti Ke Aalok Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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