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अध्याय-3
मुद्रा योग का ऐतिहासिक अनुसन्धान
भारतीय संस्कृति में मुद्राओं की अवधारणा आदिम युग से ही प्रवर्तित रही है। जब भाषा विकसित नहीं हुई थी तब आदिम युगीन प्रजातियाँ संकेतों, चित्रों एवं अनुकृतियों के माध्यम से एक-दूसरे तक अपना संवाद संप्रेषित करती थीं। उस युग में केवल मानसिक भावों की अभिव्यक्ति के रूप में मुद्रा प्रयुक्त होती थी।
__ तयुगीन मानव समाज अत्यन्त सरल-सहज तथा प्रकृति से सम्बन्ध रखता था। उनकी वैचारिक निर्मलता एवं मानसिक पवित्रता इस स्तर तक थी कि उनका हर व्यवहार कथनी और करनी की एकरूपता लिये होता था। वह जो कुछ कहता, समग्रता से उसका परिपालन भी करता था। उस युग के मानव में काल प्रभाव से क्रोध आदि कषाय अल्प होते थे अत: व्यवहार और आचरण भी तद्रूप होता था। आगम ग्रन्थों में "अप्प कोहे, अप्प माणे, अप्प माए, अप्प लोहे'' शब्दों का प्रयोग उनकी आभ्यन्तर प्रकृति का दिग्दर्शन कराते हैं। व्यक्ति वैचारिक या भावनात्मक स्तर पर जितना यथार्थता के निकट होता है उतना ही शारीरिक स्वस्थता और आध्यात्मिक शक्तियों का अनुभव करता है।
कषायों की मंदता, वासनाओं की अल्पता, मन का संतुलन, व्यवहार की ऋजुता देह को बाह्य रोगों से एवं आत्मा को आभ्यन्तर विकारों से छुटकारा दिलाती है। उस युग का प्राणी ऋजु परिणामी एवं अल्पकषायी होने से निरोग रहता था और इस कारण बाह्य उपचार अथवा मुद्रायोग जैसे अध्यात्म उपचार की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी। भाषा का समुचित विकास न हो पाने के कारण अपनी भावनाओं को शरीराकृति द्वारा सहज रूप से अभिव्यंजित कर देते थे। मुद्राओं का प्रारम्भिक स्वरूप इसी रूप में प्राप्त होता है, जो एक मात्र विचारों के संप्रेषण का माध्यम था।
जैन इतिहास के अनुसार इस अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे