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प्रतिष्ठा के मुख्य अधिकारियों का शास्त्रीय स्वरूप ...19 अखण्ड इन्द्रिय वाला, मन्त्र कवच से रक्षित, अखण्डित-उज्ज्वल वेश से विभूषित, उपवासी, धर्म का बहुमान करने वाला और कुलीन ऐसे चार स्नात्रकार प्रतिष्ठा कार्य हेतु नियुक्त करने चाहिए।16
आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार स्नात्रकार निम्न गुणों से युक्त होने चाहिए
चतुर्णां स्नपनकाराणा-मुभय कुल-विशुद्धाना-मखण्डितांगानां नीरोगाणां सौम्यानां दक्षाणामधीत स्नपनविधीनां कृतोपवासानां प्रगुणी करणम् ।
अर्थात जिसके माता पिता दोनों का ही कुल विशुद्ध हों, अखण्ड अंग वाला हो, निरोगी हो, सौम्य स्वभावी हो, विचक्षण हो, स्नात्र-प्रतिष्ठा विधि का ज्ञाता हो और उपवास किया हुआ हो, ऐसे चार स्नात्रकार प्रतिष्ठा के लिए होने चाहिए।17. ___आचार्य गुणरत्नसूरि ने पूर्वमत का समर्थन करते हुए स्नात्रकार का उपर्युक्त लक्षण ही बतलाया है। स्पष्ट बोध के लिए मूल पाठ यह है
सरत्न मुद्रिका-कंकण-सहिता-अक्षतांग-अक्षतेन्द्रिया दक्षा अखण्डोल्बणवेषा धर्मवन्त उपोषिता सतते दिन-ब्रह्मचारिणः कुलीनाश्चत्वारोऽधिका वा स्नात्रकारो कर्त्तव्याः। ___अर्थात प्रतिष्ठा हेतु चार अथवा उससे अधिक स्नात्रकार रत्नजड़ित एवं कंकण युक्त मुद्रिका पहने हुए, अक्षत अंग वाले, पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण, विचक्षण, अखण्ड-उज्ज्वल श्रेष्ठ वेशभूषा धारण किये हुए, धर्मनिष्ठ, उपवास तपधारी और मर्यादित रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले इत्यादि गुणों से परिपूर्ण होने चाहिए।18
उपाध्याय सकलचन्द्रकृत प्रतिष्ठाकल्प में स्नात्रकारों का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि विनयवान, बुद्धिमान, लोकप्रिय, न्यायोपार्जित धन सम्पन्न, शील-सदाचार आदि गुणों से युक्त श्रावक प्रतिष्ठा कार्यों में प्रशंसनीय है। __इस प्रकार जिनबिम्ब का अतिशय बढ़ाने हेतु पूर्व-परवर्ती गीतार्थ आचार्यों ने स्नात्रकारों के लिए कुछ आवश्यक योग्यताओं का निर्धारण किया है। शिल्पी का स्वरूप .
मूर्ति आदि का निर्माण करने वाला कारीगर शिल्पी कहलाता है। प्राचीन काल में परमतारक प्रतिष्ठाप्य जिनबिम्बों के अभिषेक का प्रथम अधिकार शिल्पी