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18... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन आदि आभूषणों से विभूषित देह वाला, उत्तम कोटि के हार से सुशोभित उर:स्थल वाला, शिल्पकला का परम ज्ञाता इन लक्षणों से युक्त होना चाहिए।14
दिगम्बर मतानुयायी पं. आशाधर रचित प्रतिष्ठा सारोद्धार के उल्लेखानुसार इन्द्र उत्तम कुलवान, संपत्तिवान, सुन्दर, भाग्यवान, बलवीर्यादि गुणोपेत, युवावस्था वाला, मनोज, बहुमूल्य आभूषण धारण किया हुआ, शुद्ध विचारवान, दृढ़ चित्त वाला, परमात्म भक्त, तीनों सन्ध्याओं में सामायिक करने वाला, प्रतिष्ठा विधि का ज्ञाता, मंत्र शास्त्र का अनुभवी, इन्द्रिय विजेता, व्रतनियमों में दृढ़संकल्पी, रात्रि भोजन का त्यागी, विनयी, शान्ति-क्षमा-तप-वैराग्य आदि से युक्त, समस्त विधियों का ज्ञाता इत्यादि गुणों से सम्पन्न होना चाहिए।15
इससे भिन्न अंगहीन वाला, मिथ्यादर्शनी, अभक्ष्य भोजी, मिथ्या भाषी, विपरीत श्रद्धावान आदि इन्द्र के दोष माने गये हैं। विक्रम की दसवीं शती के परवर्ती ग्रन्थों में इन्द्र के स्थान पर 'स्नात्रकार' शब्द का उल्लेख मिलता है। वर्तमान में प्राय: पूजादि अनुष्ठान करवाने वाले विधिकारक ही स्नात्रकार की भूमिका निभाते हैं। केवल पूजा आदि की सामग्री हेतु तद्योग्य एक-दो गृहस्थ को नियुक्त कर देते हैं जिससे तत्सम्बन्धी अव्यवस्था न हो। प्रत्येक गाँव या शहर की प्रतिष्ठा के हिसाब से भिन्न-भिन्न स्नात्रकार की व्यवस्था विलुप्त होती जा रही है। जबकि प्रत्येक गाँव या देश के स्वतन्त्र स्नात्रकार होने चाहिए।
उक्त वर्णन से सिद्ध होता है कि निर्वाण कलिका की रचना तक स्नात्रकार का कोई महत्त्व नहीं था। उस युग में प्रतिष्ठा महोत्सव के अधिकांश कार्य प्रतिष्ठाचार्य स्वयं कर लेते थे तथा गृहस्थोचित विधान इन्द्र के द्वारा करवाया जाता था। इन्द्र के सहयोग में अन्य श्रावक की अपेक्षा रहती, तो अन्य स्नात्रकारों का स्मरण करते थे। इसके सिवाय स्नात्रकारों का कोई स्थान नहीं था। जब परवर्ती काल में स्नात्रकारों की परम्परा प्रारम्भ हुई। तयुगीन आचार्यों को उनका स्वरूप बतलाना आवश्यक हो गया। उस सन्दर्भ में श्रीचन्द्रसूरि संकलित प्रतिष्ठा पद्धति में स्नात्रकार के निम्नोक्त लक्षण बताए गए हैं
स्नपनकाराश्च समुद्राः सकंकणा, अक्षतांग, दक्षा, अक्षतेन्द्रियाः कृतकवचरक्षा, अखण्डितोज्ज्वलवेषा, उपोषिता, धर्मबाहुमानिनः कुलीनाश्चत्वारः करणीयाः। _मुद्रिका सहित कंकण धारण किया हुआ अक्षत अंग वाला, प्रवीण,