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652... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
प्रतिष्ठा सम्बन्धी कई आवश्यक तत्त्व एवं नियम हैं। जिनका पालन होने पर प्रतिष्ठा की आध्यात्मिक एवं धार्मिक उपलब्धि और प्रतिमा की प्रयोजनीयता सिद्ध होती है।
यह नियम शास्त्रविहित है कि जिनमंदिर एवं जिनबिम्ब का निर्माण होने के बाद दस दिनों में प्रतिष्ठा करवा देनी चाहिए, वरना वहाँ व्यन्तर, भवनपति आदि देवों का वास हो जाता है। पर आजकल श्रीसंघ के विशेष उपकारी साधुसाध्वियों की प्रतीक्षा में वर्षों तक प्रतिष्ठा कार्यक्रम लटकते रहते हैं या फिर ट्रस्टियों के कारण कार्यक्रम स्थगित होते रहते हैं। उपकारी एवं प्रेरणादाता गुरु भगवंतों की निश्रा हेत प्रयास अवश्य करना चाहिए पर उसके लिए आग्रह रखना कि आप आएंगे तो ही प्रतिष्ठा होगी सर्वथा अनुचित है। साधु-साध्वी एवं गृहस्थ वर्ग को इस विषय में जागृत होना जरूरी है। कई बार इन कारणों से भी विघ्न उपस्थित होते हैं।
आजकल मुहूर्त आदि के विषय में भी लापरवाही देखी जाती है क्योंकि हर व्यक्ति अपनी सुविधा को प्रमुखता देता है। प्रतिष्ठा का श्रेष्ठतम मुहूर्त प्राप्त करने की अपेक्षा, छुट्टी है या नहीं? मुख्य ट्रस्टियों के घर में शादी तो नहीं है? साधुसाध्वी उपस्थित हो पाएंगे या नहीं? आदि कई पक्षों का अधिक ध्यान रखा जाता है। इस कारण कई बार प्रतिष्ठा आदि उतने श्रेष्ठ मुहूर्त में सम्पन्न नहीं करवाई जाती। जिससे भविष्य में उसके उतने सुफल प्राप्त नहीं होते तथा विघ्न आदि उपस्थित होते रहते हैं।
प्रतिष्ठा का प्रभाव, ग्राम, नगर, राष्ट्र आदि सभी पर पड़ता है अत: वह समस्त जगत के लिए कल्याणकारी बने इस ध्येय से प्रत्येक क्रियानुष्ठान सम्पन्न किया जाना चाहिए। प्रतिष्ठा हेतु ग्रन्थों में वर्णित बारह कर्तव्य जैसे- मुहूर्त निर्णय, राज्य पृच्छा, भूमि शुद्धि, मण्डप निर्माण आदि का सम्यक रूप से पालन किया जाए तो एक सुनियोजित, सफल एवं निर्विघ्न कार्यक्रम का आयोजन किया जा सकता है।
जिनमंदिर एवं जिनबिम्ब निर्माण के विषय में कई नियमों का उल्लेख शास्त्रों में प्राप्त होता है। वर्तमान में बढ़ती आबादी, महंगाई और जमीनों के बढ़ते दाम के कारण मंदिरों के लिए मनचाही भूमि प्राप्त करना मुश्किल है। पर जब घर बनाना होता है तो उसके लिए मनचाहा स्थान तलाश कर ही लेते हैं। भूमि का प्रभाव हमारे मन, मस्तिष्क एवं स्वास्थ्य पर देखा जाता है। कई बार व्यन्तर देवों आदि से भूमि अधिवासित होने पर वहाँ अनेक प्रकार के उपद्रव