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642... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
जन सामान्य का यह विश्वास रहा है कि विभिन्न ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव व्यक्ति की जीवन यात्रा पर पड़ता है और उनके आधार पर ही उसके जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती है। दूसरे शब्दों में ग्रह और नक्षत्रों के आधार पर व्यक्ति का जीवन चक्र निर्धारित होता है ।
जहाँ विज्ञान ने ग्रह-नक्षत्रों को आकाशीय पिण्ड माना है, वहाँ अन्य भारतीय परम्पराओं के समान ही जैन परम्परा ग्रह-नक्षत्रों को देवता के रूप में स्वीकार करती है तथा उन आकाशीय पिण्डों को उन देवों का आवास-स्थल मानती है। इसीलिए वैयक्तिक जीवन के विपत्तियों की समाप्ति और सुख समृद्धि की प्राप्ति के लिए इन ग्रहों की उपासना प्रारम्भ हुई । यद्यपि ग्रहों की इस उपासना का मूलभूत प्रयोजन, वैयक्तिक जीवन में विपत्तियों के शमन के द्वारा भौतिक कल्याण अर्थात इहलौकिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति ही रहा है।
यदि ऐतिहासिक अनुशीलन करें तो ज्ञात होता है कि जैन धर्म मूलतः निवृत्ति प्रधान धर्म है इसलिए प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में नवग्रहों की पूजा-उपासना के कोई उल्लेख नहीं मिलते हैं। ग्रहों के प्रभाव के सम्बन्ध में जो प्राचीनतम उल्लेख उपलब्ध हैं वे सूर्यप्रज्ञप्ति (ईसा पूर्व तीसरी दूसरी शती) के हैं। यद्यपि जैन-आगम साहित्य में चन्द्र, सूर्य आदि देवों के रूप में स्वीकृत तो अवश्य है, किन्तु लौकिक मंगल के लिए उनकी पूजा-उपासना के कोई उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध नहीं होते हैं।
यह सत्य है कि प्राचीन जैन आगमों में न केवल निमित्त विद्या के उल्लेख उपलब्ध होते हैं अपितु यह भी निर्देश हैं कि केवल गृहस्थ ही नहीं, किन्तु कुछ मुनि एवं आचार्य भी निमित्त शास्त्र में पारंगत होते थे। यद्यपि उन निमित्त-शास्त्रों का सम्बन्ध ग्रह-नक्षत्रों से भी रहा है फिर भी निवृत्ति प्रधान जैन धर्म में ग्रहों की उपासना के कोई निर्देश नहीं मिलते हैं।
यदि मध्यकालीन ग्रन्थों का आलोडन किया जाए तो विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों में नवग्रह का पूर्ण स्वरूप सर्वप्रथम निर्वाणकलिका (पृ. 82 ) में प्राप्त होता है । तदनन्तर 16वीं शती पर्यन्त के सुबोधासामाचारी, विधिमार्गप्रपा, आचार दिनकर आदि में नामोल्लेख के साथ- साथ नवग्रह की आह्वान, स्थापना एवं पूजा विधि भी प्राप्त होती है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि जैन मत में नवग्रहों की पूजा-उपासना की परम्परा लगभग आठवीं शती से आज तक यथावत रूप से चली आ रही है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के