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636... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
ब्राह्मण परम्परा की अष्ट दिक्पालों की अवधारणा से समन्वित करते हुए प्रारम्भ अष्टदिक्पालों और उसके पश्चात दस दिक्पालों की अवधारणा जैनों में भी विकसित हुई।
यदि ऐतिहासिक विकास क्रम को ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो प्रतिष्ठासारोद्धार (3/196-195) में आठ दिक्पालों की ही अवधारणा मिलती है। इसमें इन्द्र को पूर्व दिशा का, अग्नि को आग्नेय कोण का, यम को दक्षिण दिशा का, नैऋति को नैऋत्य कोण का, वरूण को पश्चिम दिशा का, वायु को वायव्य कोण का, कुबेर को उत्तर दिशा का और ईशान को ईशान कोण का अधिपति माना गया है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिन ग्रन्थों में दस दिक्पालों की अवधारणा उपलब्ध होती हैं, उनमें ब्रह्म या सोम को ऊर्ध्वलोक का और नागदेव या धरणेन्द्र को अधो दिशा का स्वामी बतलाया गया है। दूसरे, जहाँ जैन साहित्यिक स्तोत्रों में दस दिक्पालों का उल्लेख मिलता है, वहीं जैन मन्दिरों में प्रायः आठ दिक्पालों का ही अंकन पाया जाता है।
डॉ. मारुतिनंदन तिवारी की सूचना के अनुसार राजस्थान जिला पाली के धानेराव नगर में दस दिक्पालों का अंकन हैं। इस अपवाद को छोड़कर शेष सभी मंदिरों में लगभग आठ दिक्पालों का अंकन प्राप्त होता है। इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में लोकपालों/ दिक्पालों की यह अवधारणा कालक्रम में विकसित हुई है।
जैन परम्परा में अष्ट या दस दिक्पालों की अवधारणा कब अस्तित्व में आयी, यह निश्चित रूप से कह पाना तो कठिन है, किन्तु इन अष्ट दिक्पालों में से सोम, यम, वरूण और वैश्रमण ( कुबेर)- इन चार का उल्लेख सर्वप्रथम अर्हत् ऋषि के रूप में ऋषिभाषित सूत्र (ई.पू. चतुर्थ शती) में मिलता है, आगे चलकर यही नाम दिक्पालों की सूची में सम्मिलित हो गये। निर्वाणकलिका (पृ. 81-82) में दसों दिक्पालों का स्वरूप स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। इन्द्र का उल्लेख तो भगवतीसूत्र, कल्पसूत्र आदि आगमों एवं पउमचरिय जैसे प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है। यद्यपि इन ग्रन्थों में इन्द्र को जिनेश्वर प्रभु के सेवक के रूप में उपस्थित किया गया है। ईशान को भी जैन परम्परा में इन्द्र के रूप में ही मान्यता प्राप्त है। इसी प्रकार कुबेर और ब्रह्मा की स्वीकृति सर्वानुभूति यक्ष और ब्रह्मशांति यक्ष के रूप में मिलती है।