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574... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
निर्माण मंडप के मध्य भाग में न होकर सामने भींत के निकट किया जाता है। यह परिवर्तन ‘अंजन प्रतिष्ठा' एवं ' स्थापना प्रतिष्ठा' का भेद विस्मृत हो जाने के कारण हुआ है।
11. निर्वाण कलिका में वेदी पर जिन बिम्ब की स्थापना करने के पश्चात चैत्यवन्दन करने का उल्लेख है जबकि विधिमार्गप्रपा में देववन्दन करने का निर्देश है। यहाँ केवल शाब्दिक अन्तर ही ज्ञात होता है।
12. निर्वाण कलिका में सोलह आभूषणों से युक्त इन्द्र और इन्द्राणी को सकलीकरण के द्वारा अभिमन्त्रित करने का निर्देश है जबकि विधिमार्गप्रपा में स्नात्रकारों को अभिमन्त्रित करने का उल्लेख है । यों तो साक्षात तीर्थंकर का अभिषेक इन्द्र-इन्द्राणियों द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। परवर्ती काल में इन्द्र का स्थान स्नात्रकार ने ले लिया। वर्तमान में तो इसके लिए पुजारी शब्द का प्रयोग भी देखा जाता है।
13. निर्वाण कलिका एवं विधिमार्गप्रपा दोनों में नन्द्यावर्त्त आलेखन के छह वलय का वर्णन है किन्तु नाम एवं क्रम की दृष्टि से किंचित भेद है। इसी प्रकार आचार दिनकर में नन्द्यावर्त्त के नौ वलय का उल्लेख है और उनमें नाम एवं क्रम की अपेक्षा कुछ साम्य तो कुछ मतभेद दृष्टिगत होता है ।
14. निर्वाण कलिका के अनुसार चांदी की कटोरी में मधु- घृत को अंजन के रूप में तैयार कर स्वर्णशलाका के द्वारा 'अ' मन्त्र के उच्चारण के साथ जिन बिम्ब का नयनोन्मीलन किया जाता है जबकि विधिमार्गप्रपा के उल्लेखानुसार सौवीर- घृत-मधु-शर्करा - गजमद - कर्पूर- कस्तूरी आदि पदार्थों के संयोग से निर्मित अंजन द्वारा नयनोन्मीलन करना चाहिए। पूज्य सकलचन्द्र गणि के प्रतिष्ठाकल्प में अंजन सामग्री का विवरण और भी विस्तार से प्राप्त होता है।
इसी तरह निर्वाण कलिका आदि प्रतिष्ठा ग्रन्थों में भूतबलिमन्त्र, प्रतिष्ठामन्त्र, सकलीकरण मन्त्र आदि में भी मतभेद हैं। विधिमार्गप्रपा में मंगल पाठ की 5 गाथाएँ ही दी गई है किन्तु निर्वाणकलिका में इस सम्बन्ध में 15 गाथाएँ प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार अभिषेक, देववन्दन स्तुतियाँ, मंडप आदि का स्वरूप, उत्सव दिन, स्वर्ण मुद्रा धारण आदि कई उपविधियों के सम्बन्ध में न्यूनाधिक अन्तर हैं। ज्ञातव्य है कि प्राचीन और परवर्ती प्रतिष्ठा कल्पों में यत्किंचित जो भी भेद पाया जाता है वह मूलतः आचार्यों की अपनी-अपनी परम्परा पर आधारित हैं।