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प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... ...561 ऐसा माना जाता है कि आचारदिनकर के कर्ता ने प्राचीनतम प्राकृत प्रतिष्ठाकल्प को ही वज्रस्वामीकृत स्वीकार कर लिया है जिसे आचार्य पादलिप्त सूरि ने स्वयं की प्रतिष्ठा पद्धति में आगम के नाम से उल्लेखित किया है। जो कुछ भी हो उपर्युक्त वर्णन से यह सुस्पष्ट है कि आचार्य वर्धमानसूरि के समक्ष श्वेताम्बर
और दिगम्बर उभय सम्प्रदायों की विस्तृत प्रतिष्ठा पद्धतियाँ थीं। ___आचारदिनकर में प्रतिपादित प्रतिष्ठा पद्धति में मुख्य रूप से 'नन्द्यावर्तपूजा' और 'महापूजा' के प्रकरणों की काव्य छटाएँ अवलोकनीय हैं। आचार्य वर्धमानसूरि ने श्वेताम्बर प्रतिष्ठा कल्पों के उपरान्त दिगम्बरीय प्रतिष्ठाकल्पों का भी स्वयं की विधि में उपयोग किया है। इसका प्रमाण यह है कि इस ग्रन्थ में 'जैनविप्र' 'क्षुल्लक' आदि शब्द प्रयुक्त हैं जिन्हें साक्षी रूप में गिना जा सकता है। इसके बावजूद इतना सत्य है कि श्वेताम्बर प्रतिष्ठा-कल्पों में जो सामग्री मूल रूप से विद्यमान नहीं थी, उसे दिगम्बर ग्रन्थों से उदधृत नहीं किया। प्राचीन श्वेताम्बराचार्यों ने प्रतिष्ठा के प्रधान अंग के रूप में नन्द्यावर्त पूजन का विस्तृत विधान किया है। इसी कारण वर्धमानसूरि ने भी इस पूजन का सविस्तृत वर्णन किया है। परन्तु कल्याणक विधि के प्रसंगों, जिनका इनसे पूर्व किसी भी श्वेताम्बर संप्रदाय के प्रतिष्ठाकल्प में वर्णन या विधान नहीं था, उन विधि-विधानों को स्वयं की प्रतिष्ठा विधि में स्थान नहीं दिया है। ___पाँचवे और छठे प्रतिष्ठाकल्पों का आधार ग्रन्थ श्रीचन्द्रसूरिकृत प्रतिष्ठा पद्धति है किन्तु इन कल्पों में संकलन कर्ता द्वारा श्रीचन्द्रसूरिकृत प्रतिष्ठा का विशेष परिमार्जन किया गया प्रतीत होता है। __एक से चार पर्यन्त के प्रतिष्ठा कल्पों का संकलन करने वालों ने अंजनशलाका प्रतिष्ठा प्रसंग पर प्रतिष्ठाचार्य के लिए अंगुली में स्वर्ण मुद्रिका और कलाई में स्वर्ण कंकण धारण करने का स्पष्ट विधान किया है परन्तु पाँचवे और छठवें प्रतिष्ठा कल्पकारों ने स्वर्णमुद्रिका और कंकण के सम्बन्ध में चर्चा ही नहीं की है। __तदुपरान्त स्नात्रकारोचित कितनी ही पूजन प्रवृत्तियाँ, जिसे पूर्वकाल में प्रतिष्ठाचार्य के द्वारा स्वयं कर ली जाती थी, उन्हें पांचवें और छठे प्रतिष्ठाकल्प के संकलन कर्ताओं ने स्नात्रकारों के हाथ से करवाने का विधान किया है। इस नियम के परिणामस्वरूप इन प्रतिष्ठाकल्पों में गुरु और श्रावक के करने योग्य कार्यों का विभाजन हो गया है।