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प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का ऐतिहासिक... 557
श्वेताम्बर की अर्वाचीन परम्परा में प्राचीन प्रतिष्ठा पद्धति आचार्य पादलिप्त सूरिकृत निर्वाणकलिका में दी गई है। आचार्य कल्याणसागर सूरीश्वरजी के मतानुसार यह प्रतिष्ठा कल्प दिगम्बर के प्रतिष्ठाकल्पों से भी अति प्राचीन है। वे कहते हैं कि दिगम्बर की प्रतिष्ठा पद्धतियाँ प्रायः निर्वाणकलिकागत प्रतिष्ठाकल्प का अनुसरण करती हैं। कुछ प्रमाणों से सहज अनुमान होता है कि दिगम्बरमान्य प्रतिष्ठा कल्पों का उद्गम स्थान निर्वाणकलिका है। अनेक दिगम्बर ग्रन्थ श्वेताम्बर सिद्धान्तों के आधार पर रचे गये हैं। इस न्याय से दिगम्बरीय प्रतिष्ठा कल्प के लिए भी यह संभव हो सकता है।
निर्वाण कलिकागत प्रतिष्ठा पद्धति का मूल आधार कोई अति प्राचीन प्राकृत प्रतिष्ठाकल्प है रचनाकार ने 'आगम' कहकर इसका बहुमान किया है। आचार्य पादलिप्तसूरि ने स्थान-स्थान पर प्राकृत प्रतिष्ठा के साक्षी पाठ उद्धृत कर निर्वाण कलिका को विशेष समृद्ध और पूर्ण प्रामाणिक बनाया है।
निर्वाण कलिका के रचनाकाल के सम्बन्ध में निश्चित कह पाना संभव नहीं है, किन्तु यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि इस ग्रन्थ की रचना चैत्यवास प्रारम्भ होने के पश्चात हुई है। इससे निर्वाणकलिका की रचना का काल विक्रम की 5 वीं शती के आस-पास सिद्ध होता है। दूसरे, इस प्रतिष्ठा पद्धति के अन्तरंग निरूपणों से भी पूर्वोक्त समय का ही अनुमान होता है।
निर्वाण कलिका के पश्चात श्रीचन्द्रसूरिकृत प्रतिष्ठा पद्धति उपलब्ध होती है। यह प्रतिष्ठा विधि सुबोधासामाचारी के अन्त में प्रकाशित है तथा प्रक्षिप्त होने पर भी अन्य प्रतिष्ठा पद्धतियों की तुलना में मौलिक और प्राचीन है । इस प्रतिष्ठा पद्धति का रचनाकाल विक्रम की 12 वीं शताब्दी माना गया है।
इसके अनन्तर आचार्य जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा सामाचारी में प्रतिष्ठा विधि प्राप्त होती है। यह प्रतिष्ठा पद्धति श्री चन्द्रसूरिकृत प्रतिष्ठा पद्धति का अनुसरण करती है। इसके प्राय: विधि-विधान श्रीचन्द्रसूरि की प्रतिष्ठा विधि से मिलते-जुलते हैं। इस प्रतिष्ठा पद्धति का रचनाकाल वि.सं. 1363 है।
तदनन्तर विक्रम की 15वीं शती के जैनाचार्य वर्धमानसूरिकृत आचार दिनकर में प्रतिष्ठा विधि का स्वरूप देखा जाता है। इसमें उल्लिखित प्रतिष्ठा पद्धति आधुनिक प्रतिष्ठा कल्पों में सर्वाधिक विस्तृत तथा चैत्यवास और भट्टारक परम्परा से पूर्णतः प्रभावित है ।
आचार्य कल्याणसागरसूरि के अनुसार आचार्य वर्धमानसूरि के समीप में