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प्रतिष्ठा विधानों के अभिप्राय एवं रहस्य ... 541
में देखते हैं कि सामान्य शब्द का प्रयोग करने से भी उसकी अनन्त ध्वनि तरंगें उत्पन्न होकर विश्व में व्याप्त हो जाती हैं। फिर तरंगों से गति, गति से उष्मा और उष्मा से व्यक्ति के विचार दूसरों पर अविलम्ब प्रभाव डालते हैं । मन्त्र प्रयोग से देवताओं के वैक्रिय शरीर पर तुरन्त आकर्षण रूप आघात लगता है, जिससे वे ज्ञानोपयोग द्वारा स्वयं के स्थान पर रहते हुए अथवा निर्धारित स्थान पर पहुँचकर शुभ कर्मोदय के अनुसार सहयोगी बनते हैं ।
कुछ परम्परावादी देवता के नाम से ही चिढ़ते हैं किन्तु इस सम्बन्ध में यह सोचना और उस पर अमल करना आवश्यक है कि देहधारियों में जिसका जैसा स्थान हो उसे तद्रूप सम्मान देने पर किसी प्रकार से सम्यक्त्व में दूषण नहीं • लगता है। यदि देवताओं को आमन्त्रित करने में कोई दोष होता तो आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे विद्वान पंचाशक प्रकरण में स्पष्ट रूप से यह नहीं कहते कि दिसिदेवयाण पूया, सव्वेसिं तह य लोगपालाणं । ओसर कमेणऽण्णे, सव्वेसिं चेव देवाणं ।।
सभी इन्द्रादि देवताओं की पूजा करनी चाहिए तथा सभी लोकपाल देव की पूर्व आदि दिशा में जिस क्रम से वे स्थित हैं उसी क्रम से उनकी पूजा करनी चाहिए। यहाँ ध्यातव्य है कि किसी भी देव की पूजा उसे आमन्त्रित करने पर ही संभव है। 21
असंयमी देवों की पूजा क्यों की जाए? इस शंका का समाधान करते हु आचार्य हरिभद्रसूरि लिखते हैं कि
जमहिगयबिम्बसामी, सव्वेसिं चेव अब्भुदयहेऊ । ता तस्स पइट्ठाए, तेसिं पूयादि अविरूद्धं । । मूलनायक तीर्थंकर भगवान् इन्द्रादि सभी देवों के अभ्युदय के कारण होते हैं, अतः प्रतिष्ठा के समय उन देवताओं की पूजा योग्य है। आगे भी कहते हैं कि
साहम्मिया य एए, महिड्डिया सम्मदिट्टिणो जेण । एतच्चिय उचियं खलु, एतेसिं एत्थ पूजादी ।। दशदिक्पाल आदि देवी-देवता साधर्मिक हैं क्योंकि ये जिनेश्वर परमात्मा
के प्रति भक्ति निष्ठ होते हैं। इसी के साथ ये महान ऋद्धिशाली और सम्यग्दृष्टि सम्पन्न भी होते हैं, इसीलिए प्रतिष्ठा आदि मांगलिक अवसरों पर उनका पूजन, सत्कार आदि करना उचित है | 22