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538... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
कुपित होने से संभावित दुष्परिणामों से व्यक्ति की रक्षा करता है ।
जैन परम्परा में न्यास की दो प्रमुख पद्धतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। 1. प्रथम पद्धति में बीजाक्षरों से कराङ्ग न्यास अथवा अंग न्यास किया जाता है, 2. दूसरी पद्धति में शरीर के विभिन्न अंगों पर पंच परमेष्ठी, नवपद अथवा चौबीस तीर्थंकरों की स्थापना करके भी अंग न्यास किया जाता है। ज्ञातव्य है कि बीजाक्षरों के द्वारा न्यास करने की पद्धति जैन परम्परा में अन्य तान्त्रिक परम्पराओं से ही गृहीत हुई है और उनके समरूप ही है जबकि पंच परमेष्ठी या चौबीस तीर्थंकरों के नाम के द्वारा न्यास की पद्धति जैन आचार्यों ने अपनी परम्परा के अनुरूप विकसित की गई है। इस सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण हेतु डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखित 'जैन धर्म और तान्त्रिक साधना' का अवलोकन करना चाहिए। 17
शरीर के समस्त अंगों पर मन्त्र बीजों का न्यास करते हुए आत्मरक्षा करना सकलीकरण कहलाता है।
सामान्यतः निर्वाणकलिका, 18 मन्त्रराज रहस्य आदि कुछ वैधानिक ग्रन्थों में न्यास के पश्चात सकलीकरण का उल्लेख मिलता है और दोनों के पृथकपृथक मन्त्र भी निर्दिष्ट हैं, अतः यह मानना होगा कि ये दोनों क्रियाएँ भिन्न हैं। परमार्थतः न्यास की पूर्णता ही सकलीकरण है। मूल रूप से सकलीकरण उपसर्ग निवारणार्थ किया जाता है। सिंहतिलकसूरि कृत मन्त्रराजरहस्य में कहा गया है कि 'क्रमोत्क्रमः (मेण) पञ्चांगरक्षा सकलीकरण' - क्रम एवं उत्क्रम से पंचांग रक्षा ही सकलीकरण है। 19
स्पष्टार्थ है कि शरीर के मुख्य स्थानों को मन्त्र पाठ से कवचमय बनाकर चैतन्य स्वरूप को जागृत करने के लिए यह क्रिया की जाती है। निर्वाणकलिका, मन्त्रराजरहस्य, विधिमार्गप्रपा, सामाचारी संग्रह आदि में सकलीकरण की मन्त्र विधि निज परम्परा के अनुसार दी गई है, अतः उनमें किंचित अन्तर हैं। यह विधि आचार्य अथवा गीतार्थ मुनि के द्वारा स्वयं के लिए एवं स्नात्रकारों के लिए की जाती है। आचार्य भगवन्त अपनी सामाचारी के अनुसार किसी भी सकलीकरण मन्त्र का उपयोग कर सकते हैं। विधिमार्गप्रपा में सकलीकरण का निम्न मन्त्र है - ॐ नमो अरिहंताणं (हृदय पर), ॐ नमो सिद्धाणं (मस्तक पर), ॐ नमो आयरियाणं (शिखा पर ), ॐ नमो उवज्झायाणं (नाभि पर), ॐ नमो सव्व साहूणं पाँवों पर बोले । इस प्रकार बीजाक्षरों से निर्मित