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प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुख्य विधियों का बहुपक्षीय अध्ययन ...505 है। इस विधान के पश्चात ही जिन प्रतिमा अष्टद्रव्य आदि से पूजनीय होती है इससे पूर्व नहीं।
• इस प्रसंग पर प्रभु भक्ति का रंग, जीवदया, दान, साधर्मिक बहुमान आदि से जिनशासन की जयनाद होती है जिससे सर्वत्र जिनधर्म की महिमा होती है। और अन्य धर्मी भी जिन शासन अनुरागी बनते हैं।
• यह उत्सव सामूहिक स्तर पर होने से समाज में संगठन, सामंजस्य, सहयोग, एकता आदि के भावों का स्थापन होता है ।
• मनोवैज्ञानिक स्तर पर यह क्रिया साहस एवं उत्साह के भावों का संचार करती है जिससे मनोबल दृढ़ और भाव जगत सहिष्णु बनता है।
• प्रबन्धन की दृष्टि से यह समाज प्रबंधन, ज्ञान प्रबंधन एवं भाव प्रबंधन में सहायक है।
• धार्मिक दृष्टि से अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव का वह अंग है जिससे श्रद्धा गुण विकसित होता है तथा वैयक्तिक जीवन में हरदम परमात्मा से निकटता की अनुभूति होती है। प्राण प्रतिष्ठा : एक चिन्तन
___ पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित कुछ लोग मूर्ति आदि जड़ पदार्थों में प्राण प्रतिष्ठा करने को पाखण्ड, अन्धविश्वास, मिथ्यात्व और ढकोसला आदि कहकर उपहास करते हैं। ___ उनकी मान्यतानुसार जो जीव मोक्ष में चला गया और पुन: लौटने वाला नहीं है तब मात्र नाम के आह्वानपूर्वक जड़ मूर्ति में 'अत्रतिष्ठतिष्ठः' कहकर प्रतिष्ठा करना कहाँ तक उचित है?
वस्तुत: प्राण प्रतिष्ठा के रहस्य को समझने के लिए प्राण शब्द के गढ़ार्थ को समझना आवश्यक है। प्राण शब्द के अर्थ इस प्रकार हैं
वायु, हवा, शरीर की वह हवा जिससे प्राणी जीवित कहलाता है; मनोबल, वाक्बल, कायबल, उच्छवास और आयु इन सबका समूह; जीव या आत्मा, इन्द्रिय, पुराणानुसार एक कल्प का नाम, काल का वह विभाग जिसमें दस दीर्घ मात्राओं का उच्चारण हो सके, ब्रह्म, विष्णु, धाता के पुत्र का नाम, मूलाधार में रहने वाली वायु और अग्नि आदि।
जैन धर्म के अनुसार प्राण दो प्रकार के होते हैं- 1. द्रव्य प्राण और भाव प्राण