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अठारह अभिषेकों का आधुनिक एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन 471
चंदसूर दंसणयं करिंति” । इस आगमिक परम्परा का निर्वहन पंचकल्याणक महोत्सव के अन्तर्गत सम्पन्न करते हुए उस समय 18 अभिषेक एवं चन्द्र-सूर्य दर्शन की विधियाँ भी की जाती हैं तथा इसी आचार के अनुकरणार्थ परवर्ती आचार्यों ने चंद्र-सूर्य दर्शन की परम्परा को अभिषेक के साथ जोड़ दिया है। अतः जन्म कल्याणक महोत्सव के समय यह विधि उचित मालूम होती है । प्रतिष्ठा के अतिरिक्त काल में 18 अभिषेक किया जाए तो सूर्य-चन्द्र के दर्शन करवाना अनिवार्य नहीं है किन्तु मूल विधि का अनुकरण करते हुए दर्पण अवश्य दिखाना चाहिए।
108 अभिषेक का दृष्टि से - अधिकांश प्रतिष्ठाकल्पों के अनुसार 18 अभिषेक के अन्त में 108 शुद्ध जल के कलशों से भी अभिषेक करना चाहिए। किन्तु सकलचन्द्र गणि के प्रतिष्ठाकल्प में 108 अभिषेक का उल्लेख नहीं है इसीलिए वर्तमान संकलित कृतियों में भी इसका सूचन नहीं किया गया है, क्योंकि आजकल प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधान प्रायः सकलचन्द्रगणि कृत प्रतिष्ठा कल्प के आधार पर करवाये जाते हैं।
इसी तरह आह्वान आदि विधियों में भी किंचित भेद हैं।
वर्तमान की जनता प्राय: अठारह अभिषेक के नाम से परिचित है। इसका मुख्य कारण है आज-कल बढ़ते पूजा-अनुष्ठान एवं इसी के साथ बढ़ता अठारह अभिषेक का महत्त्व । वर्तमान में बढ़ रहा वातावरण प्रदूषण, मन्दिरों में बढ़ती आशातनाएँ एवं आधुनिक साधनों का प्रयोग तथा पूजा सामग्री की गुणवत्ता (Quality) में आती गिरावट एवं कृत्रिमता ने मन्दिरों के वातावरण और प्रतिमा के प्रभाव दोनों को दूषित कर दिया है। अतः मन्दिरों के शुद्धिकरण एवं प्रभाव वर्धन हेतु अठारह अभिषेक की क्रिया प्राय: प्रतिवर्ष करवाई जाती है । यदि वर्तमान प्रचलित अठारह अभिषेक के स्वरूप के विषय में चिन्तन किया जाए तो यह कह सकते हैं कि क्रिया तो होती है पर क्रिया करते हुए जो भाव होने चाहिए, परमात्मा के महोत्सव मनाने की जो खुमारी होनी चाहिए वह लुप्त सी हो रही है। इसी कारण विधि सम्पन्न करने के बाद भी यथोचित प्रभाव देखा नहीं जाता। इन्हीं सब पक्षों को ध्यान में रखते हुए इस अध्याय में अठारह अभिषेक सम्बन्धी समग्र पहलूओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। ताकि श्रावकजन इनका अभिप्रायार्थ, वैशिष्ट्य एवं रहस्य समझ सकें एवं अपने आप को उसी प्रकार के भावों से भावित कर सकें। इसी के साथ वे अठारह अभिषेक