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458... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
ताम्र- ताम्र या ताँबा का बर्तनों के रूप में सर्वाधिक उपयोग किया जाता है। यह एक पवित्र धातु है। आयुर्वेद शास्त्रों के मतानुसार यह धातु मधुर, कफपित्त नाशक, शीतल, कृमि एवं शूल को नष्ट करने वाला है। यह हैजे के प्रभाव को नष्ट करता है। इससे निर्मित यन्त्र प्रभावशाली होते हैं। ___ इसके संयोग से प्रतिमा शीतल गुण वाली बनती है और प्रतिमा के भीतर विद्यमान दोष प्रकट हो जाते हैं। जिस प्रकार तांबे के यन्त्र आदि को पूजनीय स्थान में रखने मात्र से उनका प्रभाव दृष्टिगत होता है वैसे ही इस चूर्ण जल का स्नात्रकार पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार पंचरत्न मिश्रित चूर्ण जल के द्वारा अभिषेक करने से जिन प्रतिमा के प्रभाव में वृद्धि होती है तथा स्नात्रकार आदि के कई रोगों का उपशमन होता है। तीसरा अभिषेक __ तृतीय स्नात्राभिषेक में प्लक्ष, अश्वत्थ, उदुम्बर, शिरीष, वल्कल (वट) इन पांचों के मिश्रित चूर्ण को जल में मिलाकर उपयोग किया जाता है।
प्लक्ष (पिपली)- यह पीपल की जाति का एक बड़ा वृक्ष है। इसकी छाल उदरशूल नाशक एवं अग्निवर्धक है।
__ अश्वत्थ (पीपल)- अश्वत्थ को सामान्य भाषा में पीपल के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धर्मशास्त्र में यह एक पूज्य वृक्ष माना गया है। यह प्राण वायु को शुद्ध करता है तथा मधुर, शीतल, कान्तिवर्धक, हृदय हितकारी और विषनाशक है। इसकी छाल रक्त संग्राहक, पौष्टिक एवं शारीरिक रोग विनाशक है।
इससे प्रतिमा का कान्तिवर्धन होता है। इन वृक्षों की छाल का प्रभाव अभिषेककर्ता श्रावक के शरीर एवं मन पर भी पड़ता है जैसे खुजली आदि समाप्त हो जाती है और वातावरण पवित्र बनता है।
उदुम्बर (गूलर)- यह औषधि शीतल, अस्थि सन्धान कारक, वर्ण विनाशक, तेजवर्धक और रत्न शोधक है। इस वृक्ष का प्रत्येक भाग उपयोगी है।
इससे प्रतिमा का तेज बढ़ता है तथा आन्तरिक दोषों का शोधन होता है।
शिरीष - आयुर्वेद शास्त्रियों के अनुसार यह वृक्ष शीतल एवं कड़वा होता है। इस वृक्ष के चूर्ण का प्रयोग विष, रुधिर एवं चर्मविकारों में लाभदायी है। यह