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अठारह अभिषेकों का आधुनिक एवं मनोवैज्ञानिक अध्ययन ...455
जो मनुष्य जिनेश्वर प्रभु का अभिषेक क्षीरसागर के जल से करते हैं वे दुग्ध धवल की भाँति स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। आचार्य सकलकीर्ति अभिषेक का महत्त्व समझाते हुए लिखते हैं कि
जिनांग स्वच्छ नीरेण, क्षालयन्ति स्वभावतः ।
ये ऽति पापमलं तेषां, क्षयं गच्छति धर्मतः ।। जो मनुष्य शुभ भाव से स्वच्छ जल द्वारा जिनबिंब का अंग प्रक्षालन करते हैं वे धर्म प्रभाव से समस्त पापों को नष्ट करते हैं।'
मुनिपुंगव अभ्रदेव इस क्रिया को मोक्ष प्राप्ति का पारम्परिक कारण मानते हुए व्रतोद्योतन श्रावकाचार में लिखते हैं कि
स्नपनं यो जिनेन्द्रस्य, कुरुते भाव पूर्वकं । . स प्राप्नोति परं सौख्यं, सिद्धिनारी निकेतनम् ।।
जो भावपूर्वक जिनेश्वर देव का अभिषेक करते हैं वे सिद्धिनारी (मोक्ष) के परम सुख को प्राप्त करते हैं। __आचार्य समन्तभद्र के उल्लेखानुसार जैसे अंगहीन सम्यग्दर्शन संसार की संतति को नहीं मिटाता, अक्षरहीन मंत्र विष की वेदना दूर नहीं करता वैसे ही अंगहीन पूजा भी पूर्ण फल प्रदान नहीं करती है। इसलिए पूजाराधना के सभी अंगों जैसे- अभिषेक, आह्वान, स्थापना आदि को उल्लासपूर्वक सम्पन्न करना चाहिए।
अठारह अभिषेक की उपादेयता पर यदि विविध परिप्रेक्ष्यों में चिंतन किया जाए तो वैयक्तिक स्तर पर यह भावशुद्धि में सर्वाधिक सहायक बनता है। इनमें प्रयुक्त विविध औषधियों के प्रभाव विभिन्न लाभ भी पहुंचाते हैं जैसे ग्रहपीड़ा, भूतपीड़ा आदि हो तो दूर होती है। शांत वातावरण एवं शुद्ध परमाणुओं के कारण मानसिक शांति तथा आनंद की संप्राप्ति होती है।
सामाजिक स्तर पर विचार करें तो जिनालय सामूहिक आराधना का स्थल है। अनेक लोगों के आवागमन से वहाँ विविध प्रकार के द्रव्य एवं भाव परमाणुओं का संचय होता है जिससे वातावरण में मलीनता आ सकती है। इसी के साथ वर्तमान में बढ़ता पर्यावरण प्रदूषण आदि के कारण भी मन्दिर का स्थान अपवित्र हो सकता है, जिसके दुष्प्रभाव से दर्शनार्थियों के अन्तर्मन में प्रसन्नता और समाधि के भाव उत्पन्न नहीं होते। किन्तु 18 अभिषेकों के द्वारा वातावरण के दुष्प्रभावों