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प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन .xlix
जाये? शिल्पकार का बहुमान क्यों और कैसे करें ? आदि तथ्यभूत जिज्ञासाओं का समाधान किया गया है। छठवाँ अध्याय इन्हीं विषयों से सम्पृक्त है।
सातवें अध्याय में जिनबिम्ब निर्माण की शास्त्रोक्त विधि दर्शायी गई है। आठवाँ अध्याय 'जिनप्रतिमा प्रकरण' से सम्बन्धत है। इसमें प्रतिमा शब्द का अर्थ, प्रतिमा के प्रकार, विभिन्न द्रव्यों से निर्मित प्रतिमाओं के फल, हीनांग प्रतिमाओं की अशुभता, खण्डित प्रतिमाओं की विसर्जन विधि ऐसे अनेक पहलुओं पर चिन्तन किया गया है। जिस तरह विवाह करने से पूर्व लड़केलड़की की कुंडली के आधार पर उनके गुण आदि मिलाए जाते हैं उसी प्रकार नगर एवं प्रतिष्ठाकारक आदि से भी जिनप्रतिमा के नाम का मिलान किया जाता है। इस नियमानुसार श्रावक स्वयं के लिए अधिक से अधिक लाभकारी प्रतिमा का निर्णय कर उस प्रतिमा को भरवा सकता है।
प्रश्न हो सकता है कि तीर्थंकर परमात्मा तो सभी के लिए समभाव रखते हैं, फिर उनकी प्रतिमा किसी के लिए कम या अधिक लाभकारी कैसे हो सकती हैं ?
इसका समाधान यह है कि तीर्थंकर की प्रतिमा लाभ या हानि नहीं पहुँचाती परन्तु संसारी मनुष्य के ग्रह, नक्षत्र, राशि आदि उसे प्रभावित करते हैं। जिस तीर्थंकर के नाम से प्रतिष्ठा कर्त्ता के अधिक गुण मिले, वह उसके लिए व्यावहारिक तौर पर अधिक लाभकारी होती है । संसारी लोग व्यावहारिक लाभहानि को अधिक प्रधानता देते हैं। अत: जैनाचार्यों ने तीर्थंकर नाम से स्वयं की राशि मिलान का विधान किया है। इससे जिनेश्वर परमात्मा से शुभ और फिर शुद्ध राग उत्पन्न होता है जो अनंतर और परम्परा से मोक्ष सुख का कारण बनता है। इस प्रकार नौवें अध्याय में किसे कौनसी प्रतिमा भरवानी या प्रतिष्ठित करवानी चाहिए? इसका संयुक्त वर्णन किया है।
दसवें अध्याय में अरिहन्त परमात्मा के पाँच कल्याणकों का सहेतुक निरूपण किया गया है जिससे तीर्थंकरों के अतिशय, लब्धि आदि का ज्ञान होता है तथा परमात्मा के प्रति अन्तरंग अहोभाव उत्पन्न होता है।
प्रतिष्ठा एक बृहद् विधि विधानमय अनुष्ठान है। इसके अन्तर्गत अनेक विधियों का समावेश होता है जैसे- जिनमंदिर निर्माण, खनन, शिलान्यास, गृह मंदिर निर्माण, वज्रलेप, मूर्ति विसर्जन, ध्वजारोहण आदि। ग्यारहवें अध्याय में प्रतिष्ठा सम्बन्धी मुख्य विधियों एवं उपविधियों की चर्चा की गई है।