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प्रतिष्ठा उपयोगी विधियों का प्रचलित स्वरूप ... 431
स्तवन के स्थान पर अजितशांतिस्तव बोलें, सभी दिशाओं में बलि प्रक्षेप करें, मूलनायक भगवान की उत्तम फल आदि से विशेष पूजा करें। प्रतिमा की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद वहाँ सप्त स्मरण या नव स्मरण का पाठ करें।
फिर सकल संघ को तंबोल - प्रभावना - पहेरामणी आदि देकर जिनबिम्ब के आगे से परदा दूर करके मुखोद्घाटन करें। उसके बाद उपस्थित संघ भी प्रतिमा के आगे उत्तम फल आदि अर्पित कर नमस्कार करें।
जैनाचार्यों के मतानुसार प्रतिष्ठा के अनन्तर 10 दिन तक विशेष पूजाएँ (दशान्हिका महोत्सव) करना चाहिए, प्रत्येक महीने की प्रतिष्ठा तिथि के दिन स्नात्र पूजा करनी चाहिए तथा प्रथम वर्षगाँठ के प्रसंग पर अट्ठाई उत्सव करना चाहिए।
मंगल दीपक - आरती उतारने के पश्चात एक थाली में मंगल दीपक लेकर निम्न गाथाएँ बोलते हुए उसे प्रदक्षिणावर्त्त से तीन बार घुमाएँकोसंबिसंठियस्स व, पयाहिणं कुणइ मउलिअ पयावो । जिण! सोमदंसणे दिण- यरू, व्व तुह मंगल पईवो ।। 4 । । भामिज्जंतो सुरसुंदरीहिं, तुह नाह मंगलपईवो । कणयायलस्स नज्जइ, भाणुव्व पयाहिणं दिन्तो ।।5।। मंगल दीपक उतारकर उसे वैसे ही रख दें, बुझाए नहीं। किन्तु आरती को बुझाने में कोई दोष नहीं है।
आरती एवं मंगल दीपक घी- गुड़-कपूर से करने पर विशेष फलदायक होते हैं तथा समस्त धर्म परम्पराओं में आरती - लवणोत्तारण आदि सृष्टि क्रम (दक्षिणावर्त्त भ्रमण) से ही उतारे जाते हैं। यहाँ ध्यातव्य है कि विशिष्ट प्रसंगों पर पूर्वोक्त लवणोत्तारण आदि की क्रियाएँ अनुक्रमश: एक साथ करनी चाहिए।
।। इति लवणोत्तारण- आरात्रिक विधि ।। विसर्जन विधि
प्रतिष्ठा, महापूजन, जाप अनुष्ठान, ध्वजारोहण आदि के मंगल अवसरों पर कुंभ स्थापना, दीपक स्थापना, नवग्रह स्थापना आदि क्रियाएँ की जाती है और उनमें देवी-देवताओं का निवास होने के कारण अनुष्ठान पूर्ण होने पर आदर पूर्वक विसर्जन (पुनः अपने आवास की ओर जाने का निवेदन) भी करते हैं। प्राचीन-अर्वाचीन प्रतिष्ठा कल्पों के अनुसार विसर्जन - विधि इस प्रकार है