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276... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
अपक्रामन्तु भूतानि, देव दानव राक्षसाः । वासान्तरं व्रजन्त्वस्मात्, कुर्यां भूमिपरिग्रहम् ।।1।। यदत्र संस्थितं भूतं, स्थानमाश्रित्य सर्वदा । स्थानं त्यक्त्वा तु तत्सर्वं, यत्रस्थं तत्र गच्छतु ।।2।। अपक्रामन्तु भूतानि, पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।
सर्वेषामविरोधेन, चैत्यकर्म समारभे ।।3।। • फिर वहाँ पंचगव्य और सुवर्ण जल के छींटे दें।
• तत्पश्चात मंदिर निर्माता या लाभार्थी परिवार का वरिष्ठ सदस्य कलश को कंधे पर लेकर गीत-वादिंत्र के नाद पूर्वक पहले पूर्व दिशा में उस भूमि की सीमा पर्यन्त जायें, वहाँ क्षण भर रूककर आग्नेय कोण में, वहाँ से दक्षिण सीमा में जाकर नैर्ऋत्य कोण में, वहाँ से पश्चिम सीमा में जाकर वायव्य कोण में और वहाँ से उत्तर सीमा में जाकर ईशान कोण पर्यन्त उस भूमि में घूमें- इस प्रकार उस भूमि की चतुर्दिग सीमा निश्चित करें।
सूत्रधार पहले से ही चारों दिशाओं में कीलियाँ और डोरी लेकर उपस्थित रहे। वह प्रासाद वास्तु की भूमि निश्चित करने के लिए आग्नेय कोण से लेकर चारों कोणों में आठ कीलियाँ गाढ़े, दो-दो कीलियों के बीच में एक-एक डोरी खींचकर बांधे। इस प्रकार भूमि की सीमा निश्चित कर सुवर्ण, रजत, मोती, दही, अक्षत आदि मांगलिक पदार्थों के द्वारा मर्यादित भूमि की प्रदक्षिणा करवायें तथा जिस (कोण) में खात स्थान आता हो वहाँ लग्न समय के आने पर विधि पूर्वक खात मुहूर्त करें।
वास्तु पुरुष पूजा- तदनन्तर वास्तु भूमि के मध्य भाग में पूर्व स्थापित कुंभ के आगे एक काष्ठ पट्ट रखकर उसके ऊपर वास्तु पुरुष का आह्वान करते हुए उसकी स्थापना करें। आह्वान एवं स्थापन मन्त्र ये हैं
ॐ वास्तोष्पतये ब्रह्मणे नमः । ॐ वास्तोष्पतये इहागच्छ-2 स्वाहा। ॐ वास्तोष्यते इह तिष्ठ-2 स्वाहा। ॐ वास्तोष्पते पूजां प्रतीच्छ-2 स्वाहा। ॐ वास्तोष्यतये नमः।