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268... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
स्वयं परमात्मा ही क्यों न हो? इस प्रकार जन्म - मृत्यु से बचने के प्रयासों एवं अंधविश्वास आदि को समाप्त करने में निर्वाण कल्याणक सहयोगी बनता है ।
आध्यात्मिक विकास में भी पंचकल्याणक महोत्सव की अहम् भूमिका है। सर्वप्रथम तो यह मन में सद्भाव एवं शुभ भावों को जागृत करता है। संसार के प्रति वैराग्य भावों को उत्पन्न करता है। परमात्मा के जीवन की एक-एक घटना जगत में रहते हुए भी उससे अलग रहने की कला का ज्ञान करवाती है तथा सिद्धत्व प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है ।
जिस प्रकार अत्यन्त सुंदर महल का निर्माण करने पर भी जब तक उसकी वास्तु विधि नहीं होती वह रहने योग्य नहीं होता, राजतिलक के बिना राजकुमार राजा नहीं बनता, वैसे ही अंजनशलाका और प्रतिष्ठा के बिना प्रतिमा संपूज्य नहीं बनती। प्रतिमा साक्षात अरिहंत परमात्मा की प्रतिकृति होती है। उसमें वीतरागमयी मुद्रा, संपूर्ण ज्ञानमयी गुणवत्ता, परमानंदमयी स्वरूप, सर्व जीवों के प्रति कल्याणबुद्धि और सर्वपापहरण की मंगल भावना का अवतरण तथा सकल विश्व के लिए इन समस्त गुणों की प्रस्थापना प्रतिष्ठा विधि से होती है। परमात्मा के यही सब गुण जिनबिम्ब में प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
इस प्रकार परमात्मा की प्रतिमा भावों के प्रशस्तीकरण एवं शुद्धिकरण में निमित्त बनती है। व्यक्ति के अन्तर्मन से दुर्भावों का परिहार एवं सद्भावों का सर्जन करती है। यह सामूहिक अनुष्ठान होने से इसके द्वारा समुदाय में रहने की कला, आपसी सामंजस्य, समभाव आदि के भावों का पोषण होता है। इस तरह भाव प्रबंधन में यह अत्यन्त सहयोगी बनता हैं।
समाहारतः इन पंच कल्याणकों में तीर्थङ्कर के अन्तरंग जीवन को देखनेसुनने का अवसर प्राप्त होता है जिससे समारोह में जुड़े भव्य जीवों का निश्चित कल्याण होता है, इसीलिए वे कल्याणक ( आत्मकल्याण करने वाले) कहलाते हैं। इन कल्याणकों में तीर्थङ्कर का कल्याण तो होता ही है क्योंकि वे स्वयं कल्याण स्वरूप हैं किन्तु इनसे दर्शकों का कल्याण भी हो जाता है। जो लोग इनमें व्यर्थ का अपव्यय आँकते हैं, वे इन कल्याणकों की आत्म साधना में कितनी उपयोगिता है, इस उद्देश्य को नहीं समझ पाते हैं।
ये पंच कल्याणक अनन्तसुखी बनने की विधि सिखाते हैं। इसीलिए इन पंच कल्याणकों की महिमा है। पंच कल्याणक के समय प्रभु के समान बनने के