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262... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
हे परमात्मन ! जिस प्रकार आप परीषह आदि विषम घटनाओं को सहजभाव से सहन करते हुए बाह्य और अंतरंग तपानुष्ठानों में अनुरक्त रहते हैं कभी भी अपनी विराट शक्ति का उपयोग नहीं करते हैं उसी प्रकार हम भी स्वावलम्बी और आत्मोन्मुखी जीवन यापन करें।
___4. केवलज्ञान कल्याणक केवलज्ञान कल्याणक का अर्थ
चार घाती कर्मों का क्षय होने पर तीर्थंकरों को जब सम्पूर्ण लोकालोक का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है तब चार निकाय के देवों एवं मनुष्यों द्वारा भव्य महोत्सव मनाया जाता है। उस महोत्सव को शास्त्रीय भाषा में केवलज्ञान कल्याणक कहते हैं। परमात्मा दीक्षा ग्रहण करने के बाद ज्ञान चेतना में निमग्न रहते हैं तत्फलस्वरूप धीरे-धीरे वह परिणति ज्ञान स्वभाव में एकाकार हो जाती है।
इससे आत्मा पूर्ण शुद्ध होकर सूर्य की तरह केवलज्ञान के रूप में प्रकाशित हो जाती है। अन्तर्मुखी वृत्ति के कारण नित नई अनुभूतियाँ प्रकट होती है। इसी क्रम में अपूर्व आत्मशुद्धि का अनुभव करते हुए वीतराग अवस्था प्रकट हो जाती है और यही घाति कर्मों से रहित आत्मा की पूर्णत: अनावृत्त अवस्था केवलज्ञान कल्याणक कहलाती हैं। अरिहंत बनने के पश्चात ही वे समस्त चराचर विश्व को दर्पण में परिलक्षित हो रहे प्रतिबिम्ब की भांति जानने लगते हैं। केवलज्ञान कल्याणक का वैशिष्ट्य
ज्ञानावरणीय आदि चार घाति कर्मों का क्षय कर मुनि पद से अरिहंत पद पर आरोहण करना केवलज्ञान कल्याणक है। तीर्थङ्कर केवलज्ञान उत्पत्ति के बाद ही चतुर्विध तीर्थ की स्थापना करते हैं, धर्म देशना के द्वारा हजारों को मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ करते हैं। सामान्यतया तीर्थङ्कर की आत्मा अनादिकाल से ही पूज्य होती है परन्तु केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात परम पूज्य बन जाती है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने के बाद ही तीर्थङ्करों का उपकारक भाव आरम्भ होता है तथा परमात्मा के 34 अतिशय एवं वाणी के 35 गुण प्रकट होते हैं। इन्द्रादि देवीदेवता समवसरण की भव्य रचना करते हैं उस समवसरण में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका तथा देवी-देवताओं के बैठने के लिए बारह पर्षदाओं की व्यवस्था होती है। इस रचनाकृति में बैठकर नरक गति को छोड़कर शेष तीन