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250... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
14. निधूम अग्निशिखा- तीर्थङ्कर की माता अन्तिम स्वप्न में बिना धुएँ की अग्नि का दर्शन करती है जो गर्भस्थ जीव के लिए यह संकेत देती है कि वह समस्त कर्म रूपी कालिमा को नष्ट कर निर्वाण पद को प्राप्त करेगा। जैसे प्रकाश एवं उष्णता अग्नि का लक्षण है वैसे ही यह स्वप्न अखण्ड धर्म जागति, अद्भुत ज्ञान प्रकाश एवं कार्य सिद्धि का प्रतीक है।
इस स्वप्न के प्रति बहुमान रखने से शुद्ध आत्म स्वरूप की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार उक्त चौदह स्वप्न दृष्ट जनों के लिए, स्मृत करने वालों के लिए एवं उसे भाव पूर्वक स्वीकार करने वालों के लिए अत्यन्त मंगलकारी एवं सुखसौभाग्य के जनक हैं। वर्तमान संदर्भो में च्यवन कल्याणक की मौलिकता
जब किसी भी तीर्थङ्कर का च्यवन होता है तब माता सर्वप्रथम चौदह शुभ स्वप्न देखती है और उसके तुरन्त बाद जागृत होकर दृष्ट स्वप्नों का स्वस्थता पूर्वक चिन्तन कर उन्हें आत्मस्थ करती है ताकि स्वप्न फल में हेर-फेर न हो। तदनन्तर गजगामिनी या हंसगामिनी गति से चलती हई अन्य कक्ष में शयन कर रहे राजा के समीप जाती है। यह क्रिया उस युग के उत्तम संस्कारों एवं मर्यादित भावनाओं को दर्शाती है। फिर अत्यन्त आदर पूर्वक हाथ जोड़कर हे स्वामिनाथ! हे विश्व नरेश! आदि मधुर शब्दों से उन्हें जागृत करती हैं। राजा भी शिष्टाचार का पालन करते हुए सम्मान पूर्वक आसन पर बैठने के लिए कहते हैं। फिर क्रमश: वार्तालाप प्रारंभ होता है। राजा स्वानुभव के आधार पर स्वप्नों का संक्षिप्त फल कहते हैं फिर भी स्वप्न विज्ञों से पूर्ण फल सुनते हैं। उसके बाद रानी स्वयं के कक्ष में आ जाती है। ___यदि उपर्युक्त आचार संहिता का गंभीरता से चिंतन किया जाए तो ज्ञात होता है कि पूर्व काल में मर्यादित और आदर युक्त व्यवहार से पारस्परिक सम्बन्धों में जो मिठास, अपनत्व आदि था वह लुप्त होता जा रहा है। __ पति-पत्नी का अलग-अलग शयन खंड वर्तमान में आपसी मन-मुटाव का सूचक माना जाता हैं। पर बालकों में श्रेष्ठ संस्कारों के निर्माण, मर्यादित जीवन, ऊर्जा संचय आदि की दृष्टि से यह आवश्यक है। यदि पूर्वजों के द्वारा निभाए जाने वाले आचरण के बारे में विचार किया जाए तो मर्यादित जीवन से सम्बन्धों में स्थैर्य, माधुर्य आदि बढ़ाया जा सकता है।