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236... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
अभाव नहीं होता है। हाँ, इतना अवश्य है कि यदि दूसरे या तीसरे नरक में जाना पड़ जाये तो क्षयोपशम सम्यक्त्व मरण समय के अन्तर्मुहूर्त को छोड़कर नरक में अपने आप उत्पन्न हो जाता है।
नियमतः तीर्थङ्कर प्रकृति उन्हीं को बँधती है, जो तीर्थङ्कर पद को नहीं चाहते हैं। तीर्थङ्कर पद चाहने वालों को तीर्थङ्कर बनने का सौभाग्य नहीं मिलता है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि को ही तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध होता है किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव के नि:कांक्षित गुण प्रकट हो जाने से उपाधियों की प्राप्ति का अभाव होता है। तीर्थङ्कर प्रकृति भी आत्मा के लिए एक उपाधि है; क्योंकि सिद्ध अवस्था में इस प्रकृति का अभाव हो जाता है। जिस सम्यग्दृष्टि को अपाय विचय नामक धर्म ध्यान में विश्वकल्याण की उत्कृष्ट भावना होती है, उसे यह प्रकृति बँधती है।
तीर्थंकर के अतिशय
तीर्थंकर भगवान के चौंतीस अतिशय होते हैं। अतिशय शब्द के श्रेष्ठता, उत्तमता, महिमा, प्रभाव, अधिकता, चमत्कार आदि अनेक अर्थ हैं। जिन गुणों के द्वारा तीर्थंकर परमात्मा समस्त जगत की अपेक्षा अतिशयी- श्रेष्ठ प्रतिभासित होते हैं, उन गुणों को अतिशय कहा जाता है। जगत के किसी भी प्राणी में तीर्थंकरों से अधिक गुण, रूप या वैभव नहीं पाया जाता है। अतः अतिशयअतिशय ही हैं, जो अन्यों की अपेक्षा तीर्थंकरों को विशेष घोषित करते हैं । अतिशय तीर्थंकरों की लोकोत्तरता के द्योतक हैं | अतिशय चौंतीस होते हैं।
इनमें श्वेताम्बर परम्परानुसार चार जन्म से, ग्यारह कर्मक्षय से और उन्नीस देवकृत होते हैं।
जन्म के चार अतिशय
1. शरीर अनन्त रूपवाला, सुगंधि युक्त, रोग रहित, पसीना और मल रहित होता है।
2. रुधिर और मांस गाय के दूध समान सफेद और दुर्गन्ध रहित होता है । 3. आहार और निहार चर्म चक्षु द्वारा दिखलाई नहीं पड़ता। 4. श्वासोच्छ्वास कमल जैसा सुगन्धित होता है।