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232... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
उसका आत्मा रूपी सूर्य मेघाच्छादन से मुक्त होकर ज्ञानालोक का प्रसार करने योग्य हो जाता है। ऐसा महापुरुष ही केवली की स्थिति में अनन्त ज्ञान का स्वामी होकर जगत उद्धार करता है। असंख्य जनों का कल्याण करते हुए अन्ततः वह निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है और अजर-अमर अविनाशी बन जाता है। यही उसकी सिद्धि या कृत-कृत्यता कहलाती है।
तीर्थङ्कर इस दृष्टि से भी अवतारों से भिन्न होते हैं तथा उनका सामर्थ्य स्वार्जित होता है, किसी पूर्व महापुरुष की प्रतिच्छाया अथवा प्रतिरूप वे नहीं होते। किसी राज परिवार में जन्म लेकर, वैभव-विलास में जीवन व्यतीत करते हुए एक दिन कोई अवतार हो जाये-ऐसा तो हो सकता है, हुआ भी है, किन्तु तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति सुगम नहीं हुआ करती। इस हेतु समस्त सुख वैभवों का स्वेच्छा से त्याग करना पड़ता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की कठोर साधना करनी पड़ती है। वीतरागी साधु बनकर एकान्त निर्जनों में ध्यान-लीन रहकर अनेक कष्टों को समता, सहिष्णुता और धैर्य के साथ प्रतिक्रिया रहित होकर झेलना पड़ता है। जब कर्म बन्धनों से छुटकारा पाकर कोई साधक कैवल्य प्राप्त कर पाता है और इसी का आगामी चरण तीर्थङ्कर है। तीर्थङ्कर बनना किसी की उदारता अथवा कृपा से नहीं, अपितु आत्म-साधना से ही सम्भव है। तीर्थङ्कर का पुनर्जन्म क्यों नहीं ?
वर्तमान कालचक्र में भगवान ऋषभदेव प्रथम और भगवान महावीर अन्तिम अर्थात चौबीसवें तीर्थङ्कर हुए हैं। जिस प्रकार प्रामाणिक ज्ञान के अभाव में यह एक भ्रान्त धारणा बनी है कि तीर्थङ्कर ईश्वरीय अवतार होते हैं उसी प्रकार यह भी एक भ्रान्ति है कि तीर्थङ्करों का पुन: पुन: आगमन होता है। यह सत्य है कि प्रत्येक कालचक्र में चौबीस ही तीर्थङ्कर होते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता कि एक कालचक्र के ही तीर्थङ्कर आगामी कालचक्र में पुन: तीर्थङ्कर के रूप में जन्म लेते हैं। यह तो अवतारवाद का ही एक रूप हो जाएगा। अत: तीर्थङ्कर परम्परा के विषय में यह सत्य नहीं हैं। प्रत्येक कालचक्र में असाधारण कोटि के मनुष्य अपनी आत्मा का जागरण कर, उसे शुद्ध और निर्विकार बनाकर साधना द्वारा यह स्थान प्राप्त करते हैं। प्रत्येक बार अलगअलग मनुष्यों को यह गौरव मिलता है।