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जिनमन्दिर निर्माण की शास्त्रोक्त विधि ... 107
किसी भी स्थिति में मूल मन्दिर में सामाजिक मीटिंग न करें। इससे मन्दिर की पवित्रता नष्ट होती है।
ज्ञान भंडार
जिनालय के परिसर में सत्संस्कारों के अभिसिंचन के लिए समृद्ध लायब्रेरी का होना आवश्यक है। प्राचीन काल में तीर्थंकरों के उपदेश ताड़पत्रों पर लिखे जाते थे। शनैः शनैः वैज्ञानिक युग का विकास हुआ, तब से मशीनों द्वारा मुद्रित कागजों पर शास्त्र लेखन की परम्परा शुरू हुई । हस्तलिखित ताड़पत्रीय शास्त्रों को औषधी आदि से संरक्षित कर नमी आदि की जगह से दूर रखना चाहिए।
वास्तु प्रणाली के अनुसार ज्ञान भंडार की आलमारियाँ दक्षिण, पश्चिम या नैऋत्य भाग में रखें ताकि ये पूर्व या उत्तर की तरफ खुल सकें। सभी आलमारियाँ यथासंभव दीवाल से सटाकर रखना चाहिए। दीवार के अन्दर बनी सभी आलमारियाँ एक ही सीध में बनायें। विषम रखने से मन्दिर में निरर्थक वाद-विवाद की संभावना रहती है।
दीवारगत आलमारियों के ऊपर खूंटी या कील न ठुकवाये, इससे निरर्थक मानसिक तनाव उत्पन्न हो सकता है ।
गुप्त भंडार
मन्दिर में दर्शन-पूजा करने वाले श्रद्धालुगण कुछ न कुछ दान अवश्य करते हैं उसे भंडार (तिजोरी) में डाला जाता है। इसमें दान करने वालों का नाम गोपनीय रहता है अत: इसे गुप्त भंडार कहा जाता है।
कुछ प्रसिद्ध तीर्थों एवं मन्दिरों में छत्र, चंवर, भामंडल, कीमती धातुएँ जैसे चाँदी के बर्तन आदि चढ़ाने की भी परम्परा है। ये अमूल्य सामग्री पृथक् कक्ष में रखी जाती है। शास्त्रकारों ने सम्पत्ति कक्ष के लिए उत्तर दिशा को सर्वोत्तम कहा है। यह कुबेर का स्थान माना गया है इसलिए यहाँ पर स्थित भंडार सदैव वृद्धिंगत होते हैं।
गुप्त भंडार निर्माण के कुछ निर्देश इस प्रकार हैं
1. यदि मन्दिर पूर्वाभिमुखी हो तो भंडार जिन प्रतिमा के दाहिनी ओर इस तरह रखना चाहिए कि वह उत्तर की ओर खुल सकें।
2. यदि मन्दिर उत्तराभिमुखी हो तो तिजोरी जिन बिम्ब के बायीं ओर रखनी चाहिए। इस नियम के अनुपालन से भंडार सदैव भरे रहते हैं।