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78... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
ईशान
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शेषनाग चक्र पूर्व गु शु श
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पश्चिम
उत्तर
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17
दक्षिण
इसका दूसरा नाम राहुचक्र है। राहु इशान कोण स गमन करता है । राहु के द्वारा उत्क्रम को छोड़कर व्युत्क्रम से गमन करने पर ईशान कोण में मुख, वायव्य कोण में पेट तथा नैऋत्य कोण में पूंछ रहती है। इस प्रकार चौथा आग्नेय कोण खाली रहता है इसलिए प्रथम खात वहाँ करना चाहिए मुख, पेट एवं पूंछ के स्थान पर खात करना हानिकारक है।
राजवल्लभ के अनुसार कन्या, तुला और वृश्चिक में सूर्य हो तो शेषनाग का मुख पूर्व दिशा में रहता है । धन, मकर और कुम्भ में सूर्य हो तो नागमुख दक्षिण में; मीन, मेष और वृषभ में सूर्य हो तो नागमुख पश्चिम में तथा मिथुन, कर्क और सिंह में सूर्य हो तो नागमुख उत्तर में रहता है।
शेषनाग का मुख पूर्वदिशा में हो तो वायव्य कोण में खात करें, दक्षिण में मुख हो तो ईशान कोण में खात करें, पश्चिम में मुख हो तो अग्नि कोण में खात करें और उत्तर में मुख हो तो नैऋत्य कोण में खात करें ।
शिलास्थापना मुहूर्त्त
जिनालय का निर्माण करने हेतु सर्वप्रथम खनन विधि करते हैं। उसके पश्चात नींव भरने हेतु मुख्य शिलाओं की स्थापना विधि की जाती है।
वास्तुसार प्रकरण एवं भारतीय ज्योतिष के अनुसार शिलास्थापन के लिए तीनों उत्तरा, पुष्य, रेवती, रोहिणी, हस्त, मृगशिरा और श्रवण- इन नक्षत्रों को