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जिनालय आदि का मनोवैज्ञानिक एवं प्रासंगिक स्वरूप ...69
वर्तमान की भोगवादी भौतिक जीवनशैली में दो तरह की विचारधारा देखी जाती है। एक वर्ग है जो मात्र भोग एवं वासनाओं में लिप्त रहकर संसार के समस्त सुखों का उपभोग करना चाहता है। उनके लिए विज्ञान एवं वैज्ञानिक खोजें ही सर्वोपरि है तथा मन्दिर स्थानक एवं अन्य धार्मिक स्थान या क्रियाएँ मात्र अंधविश्वास। वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो यह मानता है कि आज की भागदौड़ वाली जिंदगी में आत्मिक एवं मानसिक शान्ति की उपलब्धि मात्र मंदिर आदि धार्मिक स्थलों पर जाकर ही प्राप्त हो सकती है।
इस अध्याय में इसी विचारशैली का समर्थन करते हुए जिनालय, जिनबिम्ब एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधानों की वर्तमान प्रासंगिकता को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है। इसी के साथ आध्यात्मिक, भौतिक एवं मानसिक जगत के समुत्थान में यह क्रियाएँ कैसे सहायक बनें ? सामान्य जन मानस में इनके प्रति कैसे अनुरागभाव जगे ? तथा इनके माध्यम से इहलौकिक एवं परलौकिक कल्याण मार्ग को कैसे प्राप्त किया जा सके? ऐसी कई शंकाओं का समाधान करते हुए आधुनिक भोगप्रमुख विचारधारा को बदलने की कोशिश की है।
सन्दर्भ - सूची
1. दीपार्णव, 2/127-132
2. देवानां स्थापनं पूजा, पापघ्नं दर्शनादिकम् । धर्मवृद्धिर्भवेदर्थ:, कामो मोक्षस्ततो नृणाम् ॥
3. शिल्प रत्नाकर, 13/85
4. प्रासाद मंडन, 8/84, 1/33-35
5. उमास्वामी श्रावकाचार, 114 115
6. प्रतिष्ठा पाठ, 105-107
7. षोडशक प्रकरण, 7/12
8. व्यवहारभाष्य, 6/189
9. षोडशक प्रकरण, 7/15-16 10. वही, 7/6
11. विधिमार्गप्रपा, पृ. 308
प्रासाद मंडन, 1/34